।। श्रीहरिः ।।

                                         




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल त्रयोदशी वि.सं.२०७७, गुरुवा

सुख कैसे मिले ?



च्‍च कामसुखं लोके यच्‍च दिव्यं महत्सुखम् ।

तृष्णाक्षयसुखस्यैते    नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥

‘संसारमें जो भी कामोपभोगका सुख है तथा जो स्वर्गीय महान्‌ सुख है‒ये दोनों ही तृष्णानाशसे होनेवाले सुखके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हैं ।’

किसी कविने भी क्या ही सुन्दर कहा है‒

चाह गयी चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह ।

जिसको कछू न चाहिये सोई शाहंशाह ॥

अतः यह बात सिद्ध हो गयी कि पदार्थोंके अभावमें दुःख नहीं है, दुःख है पदार्थोंके अभावके अनुभवमें । मान लीजिये, एक आदमीने एकादशीको निराहार व्रत किया और एक-दूसरे आदमीको उस दिन कुछ भी उपार्जन न होनेसे निराहार रहना पड़ा । इन दोनोंको ही अन्नादि पदार्थोंके संयोगका अभाव है, किन्तु एक प्रसन्नतापूर्वक व्रत रखकर सुखी होता है और दूसरा पेटमें अन्न न पहुँचनेसे दुःखका अनुभव करता है, अतः अभावका अनुभव ही दुःख है । यदि अभावमें ही दुःख हो तो विरक्त साधु-संन्यासियोंको भी दुःख होना चाहिये, क्योंकि उनके पास न तो स्त्री है, न धन है, न मकान है, न कपड़े हैं, न सवारी है और न पहलेसे किया हुआ उदरपूर्तिके लिये कोई प्रबन्ध है । किन्तु इन सबके न रहते हुए भी वे बड़े सुखी हैं, क्योंकि उनके पास जाकर बड़े-बड़े महाराजा और धनी भी अपने अन्तःकरणकी जलन मिटाकर सुखी होते हैं । इसका कारण यह है कि वे पदार्थोंके अभावमें भी नित्य भावरूप सच्‍चिदान्दघन परमात्माकी अनुभूति करके आनन्दमग्न रहते हैं । वास्तवमें अभावका अनुभव होता है मूर्खतासे । इसलिये चाहे कितना ही अभाव क्यों न हो, मनुष्यको अभावका अनुभव न करके नित्य भावरूप परमात्माका चिन्तन करना चाहिये । जो पदार्थोंके न होनेसे या उनकी कमी होनेसे अभाव या कमीका अनुभव नहीं करेगा, वह भगवान्‌के मंगलविधानके अनुसार आये हुए दुःखमें दुःखी नहीं होगा, प्रत्युत उसमें अपने पूर्वकृत पापोंका नाश और भगवान्‌की कृपा समझकर सुखी ही होगा ।

जो धनको महत्त्व देकर रोटी, कपड़े आदि पदार्थोंसे सुख पाना चाहते हैं, वे भूल करते हैं । जड़को महत्त्व देनेसे उसके द्वारा अधर्म होगा और अधर्मका आचरण होनेसे सुख कभी न हुआ है और न होगा ही । इसके विपरीत, यदि सत्य, चेतन और अक्षयसुखके भण्डार भगवान्‌को महत्त्व देकर उनके द्वारा (भगवान्‌के भावोंके अनुभव और प्रचारद्वारा) सुख पाना चाहेंगे तो सदाके लिये सुखकी प्राप्ति हो जायगी ।

इसलिये हमें परमात्माकी प्राप्तिका ही लक्ष्य बनाना चाहिये । तथा सांसारिक पदार्थोंसे सदा ही विरक्त रहना और उनकी लालसाको मनमें आने ही नहीं देना चाहिये और उस चिन्तनमें सहायक सत्‌-शास्त्रोंका अध्ययन, सन्त-महात्माओंका संग, परमात्मासे स्तुति-प्रार्थना तथा निरन्तर नामका जप आदि साधन निष्कामभावसे करने चाहिये ।

कलियुगमें जो गुप्तरूपसे, निष्कामभावपूर्वक, निरन्तर ध्यानसहित, आनन्द और आदरसे केवल परमात्माके नामका जप करता है, उसे परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र और सहज ही हो जाती है‒

गुप्त अकाम निरंतर, ध्यानसहित सानंद ।

आदरजुत जपसे तुरत, पावत परमानंद ॥

नारायण !      नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे