हरेक विषयको ठीक समझना चाहिये । मेरी बातें कुछ अटपटी दीखती
हैं, नयी-सी लगती हैं, पर आप समझनेकी चेष्टा करो तो समझमें ठीक-ठीक आ जायँगी ।
इनको समझना बिलकुल कठिन नहीं है । प्रश्न है कि इच्छाओंका त्याग सम्भव है क्या ?
इच्छा त्यागनेसे क्या दशा होगी ? अर्थात् इच्छाओंके त्यागनेसे जीवन व्यर्थ हो
जायगा‒ऐसा प्रतीत होता है; परन्तु इस विषयमें एक मार्मिक बात बतावें‒इसे ध्यान
देकर समझ लो । भगवान्ने गीताजीमें कहा है‒ ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ (१५/७) इस श्लोकका भाव है कि जीव सदासे ही मेरा अंश है और
प्रकृतिके कार्य मनसहित इन्द्रियोंको अपनी मानता है । यह अंश तो मेरा है और
प्रकृतिका अंश‒शरीर, इन्द्रियाँ और मनको अपना मानता है । मेरा अंश होकर प्रकृतिके
अंशको पकड़ता है । उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको अपना मानना और उनकी चाहना करना ही प्रकृतिको पकड़ना है ।
विनाशीकी जो इच्छा करना है‒यही विनाशीको पकड़ना है, परन्तु वास्तवमें
विनाशीको कोई पकड़ नहीं सकता । विनाशीका अर्थ है‒नाशवाला । जैसे धन पासमें होनेसे
धनवान् और विद्या पासमें होनेसे विद्वान्‒ऐसे ही नाशवान् उसीको कहते है जिसमें
नाश-ही-नाश हो । नाशवान् पदार्थ रहेंगे ही नहीं, क्योंकि वे नाशरूप ही हैं, वे
प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं । मेरी बातकी और ध्यान देना । ध्यानसे सुनने और समझनेसे थोड़ा
नहीं, बहुत बड़ा भारी लाभ होगा । केवल इतनी बात कि
प्रकृतिका कार्य दृश्यमात्र नाशवान् है । नाश होना प्रत्यक्षकी बात है, सबके
अनुभवकी बात है । आज दिनतक हमारी उमर जितनी चली गयी, वह वापिस कभी आवेगी
नहीं । इसी प्रकार संसार-मात्रकी चीज प्रतिक्षण नष्ट हो रही है । दर्शन अदर्शनमें
जा रहा है । लोग समझते हैं कि मनुष्य एक दिन जन्मता है, परन्तु वास्तवमें जन्मके
साथ ही मृत्यु प्रारम्भ हो जाती है । इसलिये प्रत्येक प्राणी मौतकी तरफ जा रहा है
। जितने दिन जीते हुए बीत गये, उतने दिन तो मर गया कि नहीं ? मरना शब्द बुरा लगता
है, पर बात यह सही है । प्रत्येक वस्तुका अभाव हो रहा है । जितना संसार
भावरूपसे दीखता है, सब-का-सब अभावमें परिणत हो रहा है । इसलिये नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा करना अभावकी ही तो इच्छा
करना हुआ । इसलिये अभावकी इच्छा करनेसे मिलेगा क्या ? जो चीज है ही नहीं, परिवर्तनशील है, जा रही है‒उसका मूलमें अभाव ही तो
है । अगर इच्छा बिना काम चलता नहीं दीखता और
इच्छा करनी ही है तो इस बातकी इच्छा करो कि सबको सुख कैसे हो ? जो धन,
सम्पत्ति, वैभव हमारे पास है, जिनको कि हमने संग्रह किया है, जिनको अपना माना है,
उनको लोगोंमें उदारतापूर्वक कैसे बाँटें ? किस तरहसे दूसरोंको सुख पहुँचावें ? अपने पास जो-जो
वस्तुएँ दीखती हैं, उनके द्वारा उदारतापूर्वक दूसरोंकी न्याययुक्त इच्छापूर्ति
करनेसे अपनेमें नाशवान् पदार्थोंकी इच्छाओंके त्यागनेकी सामर्थ्य आती है । इसलिये
उत्पत्ति और नाशवाले पदार्थोंकी इच्छाओंको मिटानेके लिये ऐसी इच्छाएँ करो कि सबको
आराम कैसे हो, सबका भला कैसे हो, सबका कल्याण कैसे हो । रात-दिन इन विचारोंमें
मग्न रहो । |