।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                    




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७७, रविवा

“ गीता मे हृदयं पार्थ ”


नवें अध्यायके आदिमें भगवान्‌ विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा करके चौथे, पाँचवें, छठे श्लोकोंमें उदाहरणसहित राजविद्याका वर्णन करते हैं । उसके बाद अपनेसे संसारकी उत्पत्ति-प्रलयका प्रकरण बतलाकर अपनेको साधारण मनुष्य मानकर अवज्ञा करनेवालोंकी निन्दा करते हैं (९/११) और कहते हैं कि जो महात्मा हमें सम्पूर्ण भूतोंका अविनाशी कारण मानकर अनन्यभावसे भजन करते हैं (९/१३) ऐसे भक्तोंका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ (९/२२) । यद्यपि अन्य देवता भी भगवान्‌के अतिरिक्त कुछ भी न होनेके कारण अन्य देवताओंकी भक्ति भी प्रकारान्तरसे भगवान्‌की ही भक्ति मानी जा सकती है, परन्तु उनको भगवत्स्वरूप न समझनेके कारण वह विधिपूर्वक यथार्थ भक्ति नहीं है । शास्त्रोंमें जिन-जिन देवताओंकी पूजाके लिये पूजा-पद्धति, मन्त्र, सामग्री आदिका जो-जो विधान है, उसके अनुसार यथार्थ रीतिसे पूजा करनेपर बड़े-से-बड़ा फल उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति ही है, भगवान्‌की प्राप्ति नहीं । किन्तु यथार्थ भक्तिसे तो भगवान्‌ भी सुलभ हो जाते हैं (८/१४) । भगवान्‌के पूजनमें उतनी विधि, मन्त्र और सामग्रीकी आवश्यकता नहीं है; वहाँ तो एकमात्र भावकी ही प्रधानता है । कितनी सुगमता है ! भगवान्‌ कहते हैं–

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं    भक्त्युपहृतमश्नामि     प्रयतात्मनः ॥

(९/२६)

‘जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ ।’

इस श्लोकमें भगवान्‌ने पत्र-पुष्पादिका नाम लेकर ‘भक्ति’ शब्दका दो बार प्रयोग किया है । इसके द्वारा भगवान्‌ यह व्यक्त करते हैं कि मुझे विविध सामग्रियोंकी आवश्यकता नहीं है । अनायास ही जो कुछ भी भक्तको मिल जाय, वही भक्तिपूर्वक सच्‍चे हृदयसे अर्पण कर देनेसे मैं सन्तुष्ट हो जाता हूँ । जैसे द्रौपदीके दिये हुए शाक-पत्रसे भगवान् प्रसन्न हो गये । गजेन्द्रके अर्पण किये हुए पुष्पको लेनेके लिये वैकुण्ठसे दौड़े हुए आये । शबरीके प्रेमपूर्वक परोसे हुए फलोंके समान मधुरताका अनुभव भगवान्‌ने और कहीं किया ही नहीं तथा महाराज रन्तिदेवके जलमात्रसे तृप्त होकर उनका कल्याण कर दिया । इन पत्र, पुष्प, फल तथा जलको स्वीकार करनेमें भक्तोंके सच्‍चे हृदयकी विकलता और अनन्य प्रेम ही प्रधान कारण थे । भगवान्‌ इसी प्रेमके वशीभूत होकर पत्र-पुष्पको भी (जो खानेकी चीज नहीं है) खाते हैं । वे स्वयं कहते हैं–‘अश्नामि’ अर्थात् मैं खाता हूँ । प्रिय भक्तवर अर्जुनके लिये तो पत्र-पुष्पादि सामग्रीकी भी आवश्यकता न रखते हुए वे कहते हैं–‘भैया कुन्तीनन्दन ! तुम स्वाभाविक ही जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो होम करते हो, जो दान करते हो और जो तप करते हो, वह सब मुझे समर्पण कर दो’ (९/२७) । इस प्रकार समर्पण कर देनेसे शुभाशुभ दोनों प्रकारके फलोंसे मुक्त होकर मुझे प्राप्त कर लोगे (९/२८) ।