।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७७, बुधवा

वास्तविक बड़प्पन


उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको लेकर आप अपनेमें बड़प्पन अथवा नीचपनका अनुभव करते हैं‒यह बहुत बड़ी भूल है । जैसे, कोई धनको लेकर अपनेको बड़ा मानता है, कोई मकानको लेकर अपनेको बड़ा मानता है, कोई बढ़िया कपड़े पहनकर अपनेको बड़ा मानता है, कोई ऊँचा पद प्राप्त करके अपनेको बड़ा मानता है और कोई इन चीजोंके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानता है । यह बहुत बड़ी भूल है । आप स्वयं परमात्माके अंश, चेतन हैं और जड़ चीजोंको लेकर आप अपनेको बड़ा-छोटा मानते हैं‒यह आपकी तुच्छता है । जड़ चीजोंको लेकर अपनेको बड़ा मानना भी तुच्छता है और छोटा मानना भी तुच्छता है । आप तो इन चीजोंका उपार्जन करनेवाले हैं, इनका उपयोग करनेवाले हैं, इनके आदि और अन्तको जाननेवाले हैं, फिर आप इनके गुलाम क्यों हो जाते हैं ? धन मिलता है और बिछुड़ जाता है, श्रोता मिलते हैं और बिछुड़ जाते हैं‒इस प्रकार जिसके आदि और अन्तको जानते हैं, उसके मिलनेसे अपनेको बड़ा या छोटा मानना कितनी गलती है ! थोड़ा विचार करो तो बात अक्लमें आ जाती है कि अगर पद मिलनेसे हम बड़े हुए तो बड़े रुपये ही हुए, हम बड़े नहीं हुए । अतः इस बातको आप आज ही और अभी मान लें कि हम आने-जानेवाली वस्तुओंको लेकर अपनेको बड़ा और छोटा नहीं मानेंगे ।

स्वयं आप बहुत बड़े हैं, साधारण रीतिसे तो आप भगवान्‌के अंश हैं और भगवान्‌की भक्तिमें लग जायँ तो भगवान्‌के मुकुटमणि हैं । भगवान्‌ कहते हैं‒

मैं तो हूँ भगतनका दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।

जिसको भगवान्‌ अपना मुकुटमणि कहते हैं, वे ही आप हैं । भक्त कब बनता है ? जड़ताकी दासता छूटी और भक्त बना ! इसलिये आप अभी-अभी यह बात धारण कर लें कि अब हम उत्पत्ति-विनाशशील तुच्छ चीजोंको लेकर अपनेको बड़ा और छोटा नहीं मानेंगे । आप इन चीजोंका उपार्जन करो, इनका उपयोग करो, इनको काममें लाओ, पर इनके द्वारा अपनेको बड़ा-छोटा मत मानो । इन चीजोंको लेकर अपनेमें फूँक भर जाती है न, यह गलती होती है । अब बताओ, इसे माननेमें कोई कठिनता है क्या ? कठिनता नहीं है तो अभी-अभी, इसी क्षण मान लें । इसमें देरीका काम नहीं है । कोई तैयारी करनी पड़े, कोई विद्वता लानी पड़े, कोई बल लाना पड़े, कोई योग्यता लानी पड़े‒इसकी बिलकुल जरूरत नहीं है । अभी इसी क्षण स्वीकार कर लें कि जड़ चीजोंसे हम अपनेको बड़ा नहीं मानेंगे । जड़ चीजोंको लेकर अपनेको बड़ा मानना महान्‌ पराधीनता है । पराधीन व्यक्तिको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता‒‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ (मानस, बालकाण्ड १०२/३) । हम तो भगवान्‌के हैं और भगवान्‌ हमारे हैं‒ऐसा मान लोगे तो आप वास्तवमें बड़े हो जाओगे ।

ईस्वर अंस    जीव अबिनाशी ।

चेतन अमल सहज सुख रासी ॥

(मानस, उत्तरकाण्ड ११७/१)

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                                




           आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७७, मंगलवा

प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ


दुःखमें आदमी सावधान होता है । सुखमें वह सावधान नहीं होता । सुखमें आदमी हर्षित होता है तो उसमें घमण्ड आ जाता है और वह धर्मका अतिक्रमण कर जाता है‒‘हृष्टो दृप्यति दृप्तो धर्मादतिक्रामति ।’ परन्तु दुःखी आदमी धर्मका अतिक्रमण नहीं करता । जो बड़े-बड़े धनी आदमी हैं, उनके घरपर साधु जा नहीं सकता, कोई माँगनेवाला जा नहीं सकता; क्योंकि आदमी लाठी लिये बैठे हैं; आगे जाने नहीं देते ! परन्तु गरीब आदमीके घर हरेक साधु चला जायगा और उसको रोटी मिल जायगी । गरीब आदमीके मनमें आयेगा कि क्या पता, किस जगह हमारा भला हो जाय ! हमें कोई आशीर्वाद मिल जाय ! कैसे ही भावसे वह देगा । परन्तु धनी आदमीमें यह बात नहीं होगी । वह कह देगा कि नहीं-नहीं, हम नहीं देते, जाओ यहाँसे । अतः सुखी आदमीके द्वारा ज्यादा अच्छा काम नहीं होता; क्योंकि वह सुख भोगनेमें लगा रहता है । दुःखी व्यक्ति भोगोंमें नहीं फँसता, उपराम रहता है, इसलिये वह दूसरोंके लिये, अपने लिये और भगवान्‌के लिये ठीक होता है तथा भगवान्‌, जनता सब उसके लिये ठीक होते हैं । अतः दुःखदायी परिस्थितिमें साधकको प्रसन्नता होनी चाहिये, आनन्द होना चाहिये कि भगवान्‌ने बड़ी कृपा करके ऐसा मौका दिया है । इस बातको कुन्ती समझती थी, इसलिये उसने भगवान्‌से विपत्ति माँगी और कहा कि ‘हे नाथ ! हमारेको सदा विपत्ति मिलती रहे’‒‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो’ (श्रीमद्भागवत १/८/२५) । रन्तिदेवने कहा कि ‘जितने भी दुःखी आदमी हैं, उन सबका दुःख तो मैं भोगूँ और वे सभी दुःखसे रहित हो जायँ’‒‘आर्तिं  प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुखाः’ (श्रीमद्भागवत ९/२१/१२) । कितनी विचित्र बात कही है ! सबका दुःख मैं भोगूँ‒यह मामूली बात नहीं है । यह बड़ी ऊँची दृष्टी है ।

सुख-सामग्री भोगनेके लिये नहीं है । सुख-सामग्री है दूसरोंके हित करनेके लिये, सहायता करनेके लिये । यह शरीर सुख-भोगके लिये दिया ही नहीं गया है‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४४/१) । यह तो आगे उन्नति करनेके लिये दिया गया है । मनुष्य सदाके लिये सुखी हो जाय, उसका दुःख सदाके लिये मिट जाय‒इसके लिये ही यह मनुष्य-शरीर दिया गया है ।

श्रोता‒सुखमें सब साथी रहते हैं, दुःखमें कोई नहीं रहता ।

स्वामीजी‒दुःखमें वे साथी नहीं रहते, जो भोगी होते हैं, जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे दुःखीपर विशेष कृपा करते हैं, दुःखीका सहयोग करते हैं । जो केवल सुखके साथी होते हैं, वे भोगी होते हैं । वे उससे सुख चाहते हैं, उसका भला नहीं चाहते । सुखीका साथ देनेवाले ठग होते हैं, धोखेबाज होते हैं । वे खुद सुख लूटना चाहते हैं कि यह सुख हमें मिल जाय । सज्जन पुरुष दूसरेका हित करना चाहते हैं‒

गच्छतः स्खलनं क्वापि भवत्येव प्रमादतः ।

हसन्ति दुर्जनास्तत्र  समादधति सज्जनाः ॥

‘चलते हुए कोई गिर जाय, उसको चोट लग जाय तो दुष्ट पुरुष हँसेंगे, पर सज्जन पुरुष कहेंगे कि ‘भाई ! कहाँ लगी है ? तुम्हें कहाँ जाना है ? हम तुम्हें पहुँचा दें ।’ अतः दुःखदायी परिस्थितिमें सज्जन पुरुषोंका विशेष सहयोग मिलता है और हमारा अधिक विकास होता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                               




           आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७७, सोमवा

प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ


बालकको प्यार करनेमें और चपत जमानेमें भी माँका हृदय दो नहीं होता; माँकी अकृपा नहीं होती । अकृपा नहीं होती‒इतना ही नहीं, प्रत्युत ताड़ना देनेमें विशेष कृपा होती है । किसी माँको प्यार उमड़े तो वह खेलते हुए सब बच्चोंको लड्डू बाँट देगी; परन्तु उद्दण्डता करनेवाले सब बच्चोंको चपत नहीं जमायेगी । जो बच्चा अपना है, उसीको चपत जमायेगी । इस तरहसे भगवान्‌ अनुकूल परिस्थिति तो सबको दे देते हैं, पर प्रतिकूल परिस्थिति उन्हें देते हैं, जिनपर विशेष कृपा है, अपनापन है । अतः प्रतिकूल परिस्थितिमें भगवान्‌की विशेष कृपा होती है, हमारे पापोंका नाश होता है और हमारे जीवनमें विकास होता है । जितने भी अच्छे-अच्छे पुरुष हुए हैं, उनके जीवनमें प्रायः प्रतिकूल परिस्थितिसे विकास हुआ है । बहुत कम ऐसे सन्त मिलेंगे, जो अनुकूल परिस्थितिमें उन्नति कर सके हैं ।

देखो, प्रत्यक्ष बात बतायें । अभी कोई भी जीव-जन्तु या मनुष्य दुःख पाता है तो उसके साथ अच्छे आदमियोंका सहयोग रहता है कि इसका दुःख दूर कैसे हो ? परन्तु कोई भोगी व्यक्ति हो तो उसके साथ अच्छे लोगोंका सहयोग, सहानुभूति नहीं रहेगी, वह सबको अच्छा नहीं लगेगा । अच्छे सन्त तो सबको देखकर राजी हो जायँगे, पर हरेक आदमी उसको देखकर राजी नहीं होगा । मोटरपर चढ़े हुए भोगी व्यक्तिको देखकर पैदल चलनेवालोंका जी जलता है ! वे उसके सहयोगी नहीं होते, प्रत्युत विरोधी होते हैं । जैसे जनता उसके सुखमें सहयोग नहीं देती, ऐसे भगवान्‌में भी उसके प्रति थोड़ी उपेक्षा रहती है । जैसे, बच्चा सुखी है, मौज कर रहा है, खेल रहा है तो माँमें उसके प्रति थोड़ी उपेक्षा रहती है । बालक दुःखी हो जाता है तो उसपर माँकी विशेष निगाह रहती है । इसी तरह दुःखदायी परिस्थितिमें भगवान्‌की विशेष कृपा रहती है । जैसे आपका सहयोग दुःखीके साथ विशेष रहता है, ऐसे ही भगवान्‌का सहयोग भी दुःखीके साथ विशेष रहता है ।

दुःख आनेपर यदि साधक विशेष सावधानी रखे तो उसका विकास होगा; परन्तु दुःख पाकर रोने लगे तो विकास नहीं होगा । एक बालक पाँच-सात वर्षका था कि उसके माँ-बाप मर गये । अब वह तीस वर्षका हो गया । एक दूसरा बालक भी तीस वर्षका हुआ, जिसके माँ-बाप भी हैं, दादा-दादी भी हैं, बड़े भाई भी हैं । इन दोनोंमें कौन अधिक होशियार होगा ? जिसके माँ-बाप नहीं हैं, वह होगा । कारण कि दुःखमें हमारी जल्दी उन्नति होती है, उतनी अनुकूलतामें नहीं होती । दुःखमें नया विकास होता है । इससे सिद्ध क्या हुआ ? कि जो परिस्थिति भगवान्‌ने हमें दी है, वह हमारे कल्याणके लिये दी है, उद्धारके लिये दी है ।

भोग भोगते हैं तो बुद्धि मारी जाती है, विकसित नहीं होती । सुखमें गफलत होती है । ज्यादा आराम मिलनेसे नींद आती है । दुःखमें नींद नहीं आती, गफलत नहीं होती । प्रतिकूल परिस्थितिमें हम साधन करें तो हमारा साधन बहुत तेजीसे चलेगा, क्योंकि इससे हमारे पापोंका नाश होता है और प्रभुका, सन्त-महात्माओंका विशेषतासे सहयोग मिलता है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                              




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन पूर्णिमा, वि.सं.२०७७, रविवा

प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ


मनुष्यशरीरको सबसे श्रेष्ठ माना गया है‒‘लब्ध्वा सुदुर्लभं बहुसम्भवान्ते’ (श्रीमद्भागवत ११/९/२९) । अकारण कृपा करनेवाले प्रभु कृपा करके मनुष्यशरीर देते हैं‒

कबहुँक करि करुना नर देही ।

देत ईस   बिनु   हेतु   सनेही ॥

(मानस, उत्तरकाण्ड ४४/३)

जैसे भगवान्‌ने कृपा करके मनुष्यशरीर दिया है, ठीक वैसे ही भगवान्‌ने हमारेको जो परिस्थिति दी है, वह भी कृपापूर्वक दी है । हमारे कर्म अच्छे हों, चाहे मन्दे हों, कैसे ही कर्म हमने किये हों, परन्तु उनके फलका विधान करनेवाला हमारा परम सुहृद् है‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९) ।

सांसारिक दृष्टिसे तो परिस्थिति दो प्रकारकी होती है‒सुखदायी और दुःखदायी, पर पारमार्थिक दृष्टिसे परिस्थिति दो प्रकारकी नहीं होती । परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये परिस्थितिके दो भेद नहीं होते; क्योंकि भगवान्‌ने अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर दिया है तो जो परिस्थिति दी है, वह अपनी प्राप्तिके लिये ही दी है । अतः चाहे अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थिति हो, चाहे प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति हो, चाहे अनुकूल-प्रतिकूल-मिश्रित परिस्थिति हो, वह केवल हमारे कल्याणके लिये मिली है । जो कुछ परिस्थिति मिली है, वह केवल भगवत्प्राप्तिका साधन है‒‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४३/४) । जो भोगी होता है, उसीकी दृष्टिमें परिस्थिति सुखदायी और दुःखदायी‒दो तरहकी होती है । योगीकी दृष्टिमें परिस्थिति दो तरहकी होती ही नहीं ।

कल्याणके लिये अनुकूल परिस्थितिकी अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थिति ज्यादा बढ़िया है । बढ़िया क्यों है ? कि अनुकूलतामें तो रागके कारण संसारमें फँसनेकी सम्भावना रहती है, पर प्रतिकूलतामें संसारमें फँसनेकी सम्भावना नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्माकी तरफ चलनेकी मुख्यता रहती है । साधकके लिये दो ही बातें मुख्य हैं‒संसारसे हटना और परमात्मामें लगना । अनुकूल परिस्थितिमें तो हम संसारसे चिपक जाते हैं; अतः संसारसे हटनेमें मेहनत पड़ती है; परन्तु प्रतिकूल परिस्थितिमें संसारसे हटनेमें मेहनत नहीं पड़ती । इसलिये प्रतिकूल परिस्थितिमें साधकका आधा काम हो जाता है !

प्रतिकूल परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिमें मुख्य साधन है । अगर हमें प्रतिकूलता अच्छी नहीं लगती है तो हम असली साधक नहीं हुए । असली साधक तब होंगे, जब यह मानेंगे कि हमारे प्रभुकी भेजी हुई परिस्थिति हमारे लिये मंगलमय है । यह एकदम पक्की, सिद्धान्तकी बात है । शास्त्रमें आता है ।

लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके ।

तद्वदेव  महेशस्य    नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥

‘जिस प्रकार बच्चेका पालन करने और ताड़ना देने‒दोनोंमें माताकी कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती ।’

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