।। श्रीहरिः ।।

                                                     


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७८ शनिवार

        संन्यासी साधकों और 
    कीर्तनकारोंसे नम्र निवेदन


कीर्तन करना चाहिये, खूब कीर्तन करना चाहिये; परन्तु करना चाहिये भगवान्‌के प्रीत्यर्थ, लोकरंजनके लिये नहीं । लोकरंजनका कीर्तन बाह्य हो जायगा । कीर्तन करनेवालेके मनमें यह दृढ़ भाव निश्चयरूपसे होना चाहिये कि मेरे भगवान्‌ निश्चय ही यहाँ मौजूद हैं और मैं उन्हींके सामने उन्हींके प्रीत्यर्थ उनके नाम-गुण गा रहा हूँ । भगवान्‌के नाम-गुणोंके अर्थका चिन्तन करते हुए‒भगवान्‌का ध्यान करते हुए कीर्तनमें मस्त होना चाहिये । यदि ऐसा भाव न हो तो इस प्रकारका अभ्यास ही करना चाहिये । परन्तु ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिये कि मेरे इस कीर्तनसे लोगोंको‒देखने-सुननेवालोंको प्रसन्नता हुई या नहीं, उनका मन मेरी ओर आकर्षित हुआ या नहीं । भगवान्‌के नाममें श्रद्धा कीजिये, प्रेम कीजिये और श्रद्धा तथा प्रेममें सानकर ही भगवान्‌के नामका उच्चारण कीजिये । फिर आपके मुखसे निकला हुआ एक ही नाम चमत्कार उत्पन्न कर देगा । श्रीश्रीचैतन्य महाप्रभुके श्रीमुखसे निकला हुआ एक ही नाम सुननेवालेको पागल कर देता था; क्योंकि उस नामके साथ श्रीचैतन्यकी प्रेमशक्ति भरी रहती थी ।

एक बात और याद रखनी चाहिये । भगवान्‌का कीर्तन करनेवालोंको सदाचारी होना ही चाहिये, दैवी सम्पत्तिवान् बनना ही चाहिये । जो भगवान्‌का नाम लेकर नाचता-गाता है, परन्तु जिसके आचरण शुद्ध नहीं हैं, उससे जनतापर अच्छा असर नहीं पड़ता । लोग उसको आदर्श मानकर आचरणोंकी ओर ध्यान नहीं देते, जिससे दूसरे लोगोंको कीर्तन तथा कीर्तन करनेवालोंपर यहाँतक कि किर्तनीय भगवान्‌पर भी आक्षेप करनेका अवसर मिल जाता है ।अतएव हमें अपनी जिम्मेवारी समझनी चाहिये । कहीं हमारे आचरणसे पवित्र संकीर्तन और हमारे भगवान्‌पर कोई कलंक न लगाने पाये । वास्तवमें पवित्र संकीर्तन और भगवान्‌पर तो कलंक लग ही नहीं सकता; तथापि कहनेके लिये भी हमारे दोषसे ऐसा क्यों होना चाहिये ?

आचरण शुद्ध नहीं है तो भी कीर्तन करना चाहिये, परन्तु एकान्तमें । आचरणोंकी शुद्धिके लिये भगवान्‌के सामने रोना चाहिये । भगवान्‌से भीख माँगनी चाहिये । परन्तु सावधान ! संकीर्तनके नामपर दुराचरणको कभी छिपाना नहीं चाहिये और दुराचरणका समर्थन तो किसी भी हालतमें नहीं करना चाहिये ।

संकीर्तनके नामपर वर्ण और आश्रमके कर्मोंकी अवहेलना या उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिये । स्वधर्मका पालन करते हुए ही कीर्तन करना चाहिये । ज्ञानकी, वैराग्यकी, सदाचारकी, वर्णाश्रमधर्मकी और संध्या-गायत्रीकी संकीर्तनके नामपर कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये; बल्कि इनको अवश्यपालनीय समझना चाहिये, इन सबका आदर करना चाहिये और यथायोग्य शास्त्रविधानके अनुसार पालन करना चाहिये ।

संकीर्तनके नामपर पक्षपात या भगवान्‌के नामोंमें ऊँच-नीच-बुद्धि और दलबंदी नहीं करनी चाहिये । संकीर्तनका संगठन अवश्य करना चाहिये, परन्तु दलबंदी नहीं । सरल, पवित्र, निष्कपट, निष्काम, अनन्य प्रेमभावसे भगवान्‌के पवित्र नामोंको स्वयं गाना चाहिये और दूसरोंको ऐसा करनेके लिये प्रेरणा करनी चाहिये । परन्तु यथासाध्य उपदेशक, नेता अथवा आचार्य नहीं बनना चाहिये । पूजा, सत्कार, मान, बड़ाई आदिसे सदा अपनेको बचाते रहना चाहिये । धन और स्त्रीके लालचमें तो कभी पड़ना ही नहीं चाहिये ।

संकीर्तनके समय मुक्तकण्ठसे भगवान्‌के नामोंका घोष करना चाहिये । ज्ञान, विद्वत्ता, पद, धन आदिके अभिमानमें चुप नहीं बैठ रहना चाहिये । खड़ा कीर्तन होता हो तो संकोच छोड़कर खड़े हो जाना चाहिये । कहीं हमारे आचरणसे भगवन्नामसंकीर्तनका अपमान न हो जाय । परन्तु नाचना चाहिये प्रेमावेश होनेपर ही, लोग-दिखाऊ नहीं । कलाका नृत्य दूसरी चीज है एवं प्रेममय भगवन्नामकीर्तनका दूसरी ।

याद रखना चाहिये, भगवन्नामकीर्तन बहुत ही आदरणीय और ऊँचा साधन है । इसका ऊँची-से-ऊँची भावनासे साधन करना चाहिये । पवित्र पुरुषोंद्वारा किये हुए भगवन्नामसंकीर्तनकी ध्वनि जहाँतक पहुँचेगी वहाँतकके समस्त जीवोंका अनायास ही कल्याण हो सकता है ।

‒स्वामी रामसुखदास

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे