मैं, तू, यह और वह‒ये चारों तो असत्, जड़ और दुःखरूप हैं,
पर चिन्मय सत्ता सत्, चित् और आनन्दरूप है । इस चिन्मय
सत्तामें सबकी स्वतः निरन्तर स्थिति है । सांसारिक स्थूल व्यवहार करते हुए
भी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार, हलचल,
अशान्ति, उद्वेग नहीं होता । कारण कि सत्तामें न अहंता (मैंपन) है, न ममता
(मेरापन) है । वह सत्ता ज्ञप्तिमात्र, ज्ञानमात्र है । इस ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं
है अर्थात् ज्ञान है, पर ज्ञानी नहीं है । जबतक ज्ञानी
है, तबतक एकदेशीयता, व्यक्तित्व है । एकदेशीयता मिटनेपर एकमात्र निर्विकार,
निरहंकार, सर्वदेशीय सत्ता शेष रहती है, जो सबको स्वतः प्राप्त है[*] । स्वरूपमें जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और
समाधि‒ये पाँचों ही अवस्थाएँ नहीं हैं । ये पाँचों अवस्थाएँ अनित्य हैं और स्वरूप
नित्य है । अवस्थाएँ प्रकाश्य हैं और स्वरूप प्रकाशक है । अवस्थाएँ अलग-अलग (पाँच)
हैं, पर उनको जाननेवाले हम स्वयं एक ही हैं । इन पाँचों अवस्थाओंके परिवर्तन, अभाव
तथा आदि-अन्तका अनुभव तो हमें होता है, पर अपने (स्वरूपके) परिवर्तन, अभाव तथा
आदि-अन्तका अनुभव हमें नहीं होता; क्योंकि स्वरूपमें ये
हैं ही नहीं । जैसे स्वप्नावस्थामें देखे गये पदार्थ मिथ्या (अभावरूप) हैं,
ऐसे ही उन पदार्थोंका अनुभव करनेवाला (स्वप्नको देखनेवाला) अहंकार भी मिथ्या है ।
स्वप्नावस्थामें तो जाग्रत्-अवस्था दबती है, मिटती नहीं, पर जाग्रत्-अवस्थामें
स्वप्नावस्था मिट जाती है । अतः स्वप्नावस्थाके
साथ-साथ उसका अहंकार भी मिट जाता है । इसी तरह जाग्रत्-अवस्थामें जो
अहंकार दीखता है, वह शरीर छूटनेपर मिट जाता है; परन्तु तादात्मयके
कारण दूसरे देहकी प्राप्ति होनेपर पुनः अहंकार
जाग्रत् हो जाता है । यद्यपि जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंका
अहंकार भी अलग-अलग होता है, तथापि उनमें अपनी सत्ता एक रहनेके कारण अहंकार भी एक
दीखता है । एक तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) होती है, जिसको जाग्रत्,
स्वप्न और सुषुप्तिके बादकी अवस्था कहते हैं । परन्तु वास्तवमें तुरीयावस्था कोई
अवस्था नहीं है, प्रत्युत तीन अवस्थाओंकी अपेक्षासे उसको तुरीयावस्था अर्थात्
चतुर्थ अवस्था कह देते हैं । इसको बद्धावस्थाकी अपेक्षासे मुक्तावस्था भी कह देते
हैं । निर्वाण पद भी इसीका नाम है‒ पद निरवाण लखे कोई विरला, तीन लोकमें काल समाना, चौथे लोकमें नाम निसाण, लखे कोई विरला । तुरीयावस्था, मुक्तावस्था अथवा निर्वाण पद कोई
अवस्था या पद नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप है ।
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वास्तवमें सत्ताका वर्णन शब्दोंसे
नहीं कर सकते । उसको असत्की अपेक्षासे सत्, विकारकी अपेक्षासे निर्विकार,
अहंकारकी अपेक्षासे निरहंकार, एकदेशीयकी अपेक्षासे सर्वदेशीय कह देते हैं, पर
वास्तवमें उस सत्तामें सत्, निर्विकार आदि शब्द लागु होते ही नहीं । कारण कि सभी
शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, जबकि सत्ता निरपेक्ष
और प्रकृतिसे अतीत है । इसलिये गीतामें आया है कि उस तत्त्वको न सत् कहा जा सकता
है और न असत् ही कहा जा सकता है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’
(१३/१२) । |