।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                    


आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७८ शनिवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव

 

गीतामें आया है‒

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । (३/२७)

‘अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अर्थात्‌ अहंकारसे तादात्म्य करनेवाला मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है ।’ वास्तवमें स्वरूप (स्वयं) कर्ता नहीं है । अतः साधकको चाहिये कि वह ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ इसपर दृढ़ रहे‒‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५/८) । जब अपनेमें कर्तापन और लिप्तता नहीं रहती, तब साधकको पूर्णता प्राप्त हो जाती है, वह सिद्ध हो जाता है‒‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’ (गीता १८/१७) ।

पदार्थ, रुपये, कुटुम्ब, शरीर आदिमें जो प्रियता (राग) है, वह बुद्धिकी लिप्तता है । कर्तापन और लिप्तता‒दोनों ही स्वरूपमें नहीं हैं, प्रत्युत मानी हुई हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) । जैसे हम किसी प्रकाशमें बैठे हैं तो वह प्रकाश किसीसे भी लिप्त नहीं होता और उसमें ‘मैं प्रकाश हूँ; मेरा प्रकाश है’‒ऐसी अहंता-ममता भी नहीं होती, ऐसे ही सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकाशित करनेपर भी स्वरूप (स्वयं) निर्लिप्त रहता है । वह क्रियाओंको प्रकाशित करता नहीं है, प्रत्युत क्रियाएँ उससे प्रकाशित होती हैं अर्थात्‌ स्वरूपसे उन क्रियाओंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है ।

तादात्म्यसे राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता-भय, उद्वेग-हलचल आदि विकार उत्पन्न होते हैं । अगर ये विकार न होते हों, प्रत्युत अपनेमें केवल एकदेशीयपना दीखता हो तो यह भी साधकको असह्य होना चाहिये । कारण कि अहंता तो एकदेशीय है, पर सत्ता एकदेशीय नहीं है । जब सत्ता ही अपना स्वरूप है तो अपनेमें एकदेशीयपना क्यों दीखता है‒ऐसा विचार करके साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये । इसलिये पूर्वसंस्कारसे अपनेमें एकदेशीयपना (अहंता) दीखे तो साधकको ऐसा मानना चाहिये कि वास्तवमें अहंता आ नहीं रही है, प्रत्युत जा रही है । दरवाजेपर आदमी आता हुआ भी दीखता है और जाता हुआ भी दीखता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अहंताके टुकड़े होते हैं । अहंताके टुकड़े नहीं होते, प्रत्युत अनादिकालसे अहंताके जो संस्कार पड़े हुए हैं, उनका अचानक भान हो जाता है । अतः उसको महत्त्व न देकर उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये और दृढ़तासे यह अनुभव करना चाहिये कि अपनेमें अहंता नहीं है । कारण कि अगर अपनेमें अहंता होती तो वह सुषुप्तिमें भी रहती और अवस्थान्तर अथवा देहान्तरकी प्राप्तिमें भी रहती । जब प्रकृतिका कोई भी कार्य स्थिर नहीं है तो फिर अहंता कैसे स्थिर रहेगी ? अहंता हरदम बदलती है, कभी स्थिर और एकरूप नहीं रहती और न रह सकती है । परन्तु जो प्रकृतिसे अतीत तत्व (अपनी सत्ता) है, वह कभी बदलता नहीं, सदा स्थिर और एकरूप रहता है । अतः बदलनेवाली वस्तुके साथ हमारा (न बदलनेवालेका) सम्बन्ध है ही नहीं‒ऐसा दृढ़तासे अनुभव कर लेना चाहिये; क्योंकि यह वास्तविकता है ।