।। श्रीहरिः ।।

             


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७८, रविवार
                             

नामजप और सेवासे भगवत्प्राप्ति


सन्तोंने कहा है‒‘हरिया बन्दिवान ज्यूँ करिये कूक पुकार ।’ कोई चारों तरफसे घिरा हुआ हो और वहाँसे निकलना चाहता हो तो वह जैसे पुकारता है‒कोई छुड़ाओ ! छुड़ाओ ! ऐसे ही भीतरसे पुकार निकले‒हे नाथ ! मैं काम, क्रोध, लोभ, ममता, आसक्तिमें फँस गया हूँ, हे नाथ ! मुझे इनसे छुड़ाओ ! इस तरह आर्त होकर भगवान्‌को पुकारो ।

आजतक नामकी जितनी महिमा लिखी गई है, उतनी तो है ही, उसके अलावा भी बहुत अधिक बाकी बची है । परन्तु नाम सही ढंगसे न लेकर कहते है कि नामकी जितनी महिमा शास्त्रोंमें लिखी है, सुननेमें आती है, उतनी देखनेमें तो नहीं आती ! देखनेमें आये कैसे ? आपने उस ढंगसे नाम लिया ही नहीं । नाम लेनेका ढंग है‒अनन्यभावसे नाम लेना कि केवल भगवान्‌ ही मेरे हैं, भगवान्‌के सिवाय और कोई मेरा नहीं है । मैं केवल भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌के सिवाय और किसीका मैं नहीं हूँ । माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदिका मैं नहीं हूँ । वे मेरेको अपना मानते हैं तो मैं उनकी सेवा करनेके लिये हूँ । माता-पिताकी सेवा करो, स्त्री-पुत्रका पालन करो, पर उनसे कुछ भी लेनेका भाव मत रखो । खूब तत्परतासे, न्यायसे उनकी प्रसन्नता लो, पर अपने-आपको फँसने मत दो । देनेसे आप फँसोगे नहीं, पर लेनेकी इच्छामात्रसे बँध जाओगे । सेवा करनेके लिये तो सब संसार हमारा है, पर लेनेके लिये संसार हमारा है ही नहीं । बढ़िया बात तो यह है कि भगवान्‌से भी कुछ लेनेके लिये हमें नाम नहीं लेना है । पापोंका नाश करनेके लिये भी नाम नहीं लेना है । नाम इसलिये लेना है कि भगवान्‌ हमें स्वीकार कर लें, हम केवल भगवान्‌के रहें, भगवान्‌को कभी भूलें नहीं । किसी भक्तने कहा है‒

दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकान्तक प्रकामम् ।

अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि ॥

‘हे नरकासुरका अन्त करनेवाले प्रभो ! आप चाहे मेरा स्वर्गमें निवास कर दें, चाहे पृथ्वीपर निवास कर दें और चाहे नरकोंमें निवास कर दें । इसके लिये मैं मना नहीं करता । मेरी तो एक ही माँग है कि शरद्-ऋतुके कमलकी शोभाको हरनेवाले आपके जो चरण हैं, उनको मृत्यु-अवस्थामें भी भूलूँ नहीं । आपके चरण मेरेको सदा याद रहें ।’

मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह एष एव ।

त्वद्भृत्यभृत्यपरिचारकभृत्यभृत्यभृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ ॥

(गर्गसंहिता, अश्वमेध,५०/३३)

‘मेरे जन्मका फल यही है, मेरी प्रार्थनाका भी एक ही विषय है और आपकी कृपा भी मैं इसीमें मानता हूँ कि आप अपने दासोंके दास, उन दासोंके नौकरोंके नौकर और उन नौकरोंके गुलामोंका गुलाम तथा उनका भी गुलाम‒इस तरह अपने दासोंकी परम्परामें सातवीं जगह भी मेरेको याद कर लें ।’