।। श्रीहरिः ।।

               


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
                             

नामजप और सेवासे भगवत्प्राप्ति


आप रुपयोंके पीछे-पीछे दौड़ते हैं, पर रुपयोंने कभी कहा कि हम तुम्हारें हैं, तुम हमारे हो ? घर, जमीन, जायदाद, रुपये, कपड़े, गहने आदिको आप मेरा-मेरा कहते हैं, पर क्या उन्होंने कभी कहा कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो ? उलटे वे आपको छिटका रहे हैं, आपको छोड़कर जा रहे हैं । कुटुम्बी भी जा रहे हैं । कपड़े, गहने भी जा रहे हैं, फट रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं । फिर भी आप ‘हाय रुपया, हाय रुपया’ करते हैं, यह कोई मनुष्यपना है ? रुपयोंके लिये झूठ, कपट, बेईमानी, पाप, अन्याय करते हुए भी डरते नहीं । रुपयोंका अच्छे काममें उपयोग भी नहीं कर सकते । चाहे भगवान्‌से विमुख हो जायँ, धर्म-कर्म सब डूब जाय, पर किसी तरहसे कहींसे रुपया ले लें । बुरे कर्मसे भी किसी तरहसे कमा लें और खा लें, बस । यह कोई दशा है ? आप जरा सोचें । हृदयसे तो रुपयोंको चाहते हैं, पर ऊपरसे भगवान्‌का नाम लेते हैं !

ऊपर मीठी बात,   कतरनी काँखमें ।

आग बुझी मत जान, दबी है राखमें ॥

भीतरमें आग बुझी नहीं है । कपट, जालसाजी, ठगी, धोखेबाजी करके किसी तरहसे दूसरेको चूस लें‒ऐसी लूट-खसोट मची है मनमें । कहते हैं कि नाम-जपसे लाभ दीखता ही नहीं ! दीखे कैसे ? मनमें तो महान् कूड़ा-कचरा भरा हुआ है !

मीराबाई इतनी ऊँची हो गयी, उसका कारण क्या था ? ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ मेरे तो केवल भगवान्‌ हैं, बस । और कोई मेरा है ही नहीं । इस प्रकार भगवान्‌के साथ अनन्य सम्बन्ध हो । यह अनन्यभाव ही भगवान्‌को पकड़ता है, क्रिया नहीं पकड़ती । पदार्थोंसे और क्रियाओंसे आप भगवान्‌को खरीदना चाहोगे तो यह नहीं होगा । भगवान्‌में अपनापन करो तो भगवान्‌ चूँ नहीं कर सकते, जा नहीं सकते ।

मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं, फिर वे आये क्यों नहीं ? अभीतक भगवान्‌ने दर्शन क्यों नहीं दिये ? ऐसी व्याकुलता होनेपर जब संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब भगवत्प्राप्ति हो जाती है । संसारके साथ सम्बन्ध केवल संसारकी सेवा करनेके लिये है । कुटुम्बमें रहते हुए केवल कुटुम्बियोंकी सेवा करनी है, उनसे कोई वस्तु, सेवा लेनेकी आशा मनमें रखनी ही नहीं है ।

संसारमें हमारा जन्म ऋणानुबन्धसे हुआ है । मैंने राजस्थानी भाषामें सुना है, कोई दुःख देता है तो कहते हैं ‘काला चाबिया है इसका’ अर्थात्‌ इसका तिल खाया है, इसका हमारेपर कोई बदला है, उसको यह लेगा । संसारके जितने सम्बन्धी हैं, सबका बदला आपपर है । वह बदला चुकाना है । अगर मुक्ति चाहते हो तो कम-से-कम पुराना ऋण तो चुकाओ, नया ऋण क्यों लेते हो बाबा ? संसारकी सेवा करो, पर संसारसे कुछ चाहो मत । ‘आशा हि परमं दुःखं नैरश्यं परमं सुखम्’ (श्रीमद्भागवत ११/८/४४) संसारसे आशा रखनेमें महान् दुःख है और संसारसे निराश होनेमें महान् सुख है ! माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई, सब हमारे अनुकूल चलें, हमारा काम करें‒इस प्रकार केवल लेने-ही-लेनेके लिये सम्बन्ध मानना आसुरी स्वभाव है ।