।। श्रीहरिः ।।

                                                       


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७८, रविवार
            मनुष्य-जीवनका उद्देश्य


साधरण मनुष्यकी बुद्धि आरम्भको देखती है, पर उसके अन्तको नहीं देखती । परन्तु विचारवान् मनुष्य उसके अन्तको देखते हैं कि इसका नतीजा क्या होगा ? नतीजा देखनेवाले तो विवेकी पुरुष होते हैं, पर जो नतीजा न देखकर आरम्भ देखते हैं, वे पशु होते हैं । जो रोगी आदमी जीभके थोड़े-से सुखके वशमें होकर कुपथ्य कर लेता है, तीन अंगुल जीभके वशमें होकर साढ़े तीन हाथके शरीरको बिगाड़ लेता है, वह विचारवान् पुरुष नहीं कहलाता । विचारवान्‌, बुद्धिमान्‌ वही कहलाता है, जो कुपथ्य न करे । विचारवान् मनुष्य ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे नरकोंमें जाना पड़े, चौरासी लाख योनियोंमें भटकना पड़े, बार-बार दुःख पाना पड़े । ऐसे कामके वे नजदीक ही नहीं जायेंगे । वे वही काम करेंगे, जिससे वे सदाके लिये सुखी हो जायँ ।

मनुष्यमें विवेककी प्रधानता है । उस विवेकको महत्त्व देकर ही अपना उद्धार करना है । विवेककी प्रधानता नतीजेपर सोचनेमें हैं, तात्कालिक दृष्टि तो पशुओंकी होती है कि जो सामने दीखता है, वही ठीक है, बस आगे क्या होगा, इसकी परवाह नहीं । अभी जो मिल जाय, ले लो, फिर नतीजा क्या होगा, कोई परवाह नहीं‒ऐसे मनुष्योंमें और पशुओंमें क्या फर्क है ? मनुष्य तो वह है, जो यह देखे कि अन्तमें इसका परिणाम क्या होगा ? अभी भोग भोगनेमें और धनका संग्रह करनेमें लगे रहेंगे तो मरनेपर धन आदि पदार्थ यहीं रह जायेंगे और अपने किये  हुए कर्मोंका फल आगे भोगना पड़ेगा । इसलिये यहाँ धन भी कमाना है, शरीरका निर्वाह भी करना है; परन्तु लोभमें और भोगमें नहीं फँसना है‒यह सावधानी रखनी है । गृहस्थमें रहते हुए धन कमायें, सुविधाके अनुसार रहें, पर लोभ-बुद्धिसे और भोग-बुद्धिसे नहीं । तात्पर्य है कि लोभ-बुद्धिसे धन नहीं कमाना है और भोग-बुद्धिसे संसारमें सुख नहीं भोगना है । गीतामें आया है कि राग-द्वेषरहित होकर इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन किया जाय तो एक प्रसन्नता होती है । उस प्रसन्नतासे दुःखोंका नाश होता है । ऐसे प्रसन्नचित्तवाले साधककी बुद्धि बहुत जल्दी परमात्मतत्त्वमें स्थित हो जाती है (२/६४-६५) । इसलिये धन कमाना है और उसके द्वारा दूसरोंका उपकार करना है; परन्तु संग्रह नहीं करना है । लोभ-बुद्धि होनेसे ही संग्रहकी बुद्धि होती है । लोभी आदमी धनको अपने लिये और दूसरोंके लिये खर्च नहीं कर सकता । खर्च करनेसे ही पैसे काम आते हैं । खर्च और पैसा‒ये दो चीजें हैं । इन दोनोंमें खर्च करना बड़ी बात है, संग्रह करना बड़ी बात नहीं है । कारण कि संग्रह करनेसे दूसरोंके सुखमें भी बाधा पहुँचेगी और खुद भी सुख नहीं भोग सकोगे । लोभी आदमी धनके संग्रहका अभिमान करके अपनेको सुखी बेशक मान ले, पर उसका धन न खुदके काम आता है और न दूसरोंके काम आता है । जो अपने तथा दूसरोंके काम नहीं आता, उसे धन मानना ही गलती है ।