एक साधुकी बात सुनी । कुछ साधु
बद्रीनारायण गये थे । वहाँ एक साधुकी अँगुलीमें पीड़ा हो गयी, तो किसीने कहा कि आप
पीड़ा भोगते हो, यहाँ अस्पताल है, सबका मुफ्तमें इलाज होता है । आप जा करके पट्टी
बँधवा लो । उस साधुने उत्तर दिया कि यह पीड़ा तो मैं भोग
लूँगा, पर मैं किसीको पट्टी बाँधनेके लिये कहूँ–यह पीड़ा मैं नहीं सह सकूँगा !
ऐसे त्यागका उदाहरण भी मेरेको एक ही मिला, और कोई उदाहरण नहीं मिला मेरेको ।
मेरेको यह बात इतनी बढ़िया लगी कि वास्तवमें यही साधुपना है, यही मनुष्यपना है ।
जैसे कुत्ता टुकड़ेके लिये फिरे, ऐसे जगह-जगह फिरनेवालेमें मनुष्यपना ही नहीं है,
साधुपना तो दूर रहा । सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) गृहस्थी थे, पर वे भी कहते कि भजन करना हो
तो मनसे पूछो कि कुछ चाहिये ? तो कहे कि कुछ नहीं चाहिये । ऐसा कहकर फिर भजन करे ।
जब गृहस्थाश्रममें रहनेवाले भी यह बात कह रहे हैं, तो फिर साधुको क्या चाहिये ? श्रोता–महाराजजी ! हमारा काम कैसे चलेगा ? स्वामीजी–हमें काम चलाना ही क्यों है, बन्द करना है । श्रोता–शरीरमें रोग हो गया तो दवाईके बिना काम
कैसे चलेगा ? स्वामीजी–काम नहीं
चलेगा तो क्या होगा ? मर जाओगे । तो दवाई खानेवाले नहीं मरते क्या ? श्रोता–तकलीफ पाकर मरेंगे । स्वामीजी–दवाई खानेवाले तकलीफ नहीं पाते हैं क्या ? दवाई खाते-खाते अन्तमें हार करके,
थक करके मरेंगे तो तकलीफ उठाकर ही मरेंगे । बात तो वह-की-वह ही है । भीतरमें किसीसे चाहना नहीं होगी तो पराधीनताका दुःख नहीं पाना
पड़ेगा । मौज रहेगी, आनन्द रहेगा । एक आदमी त्याग करता है और एक दरिद्री है ।
त्यागीके पास भी पैसा नहीं है और दरिद्रीके पास भी पैसा नहीं है । पैरमें जूती
नहीं, सिरपर छाता नहीं, अंटीमें दाम नहीं ! अवस्था
दोनोंकी बराबर ही है, पर भीतरसे हृदय भी बराबर है क्या ? त्यागीके हृदयमें एक
विलक्षण आनन्द रहता है, जो पराधीन होनेसे नहीं मिलता । जिसको अमुक चीज चाहिये,
अमुक दवाई आदि चाहिये, वह महान् पराधीन है । श्रोता‒रोगसे पीड़ा होती है । स्वामीजी–वैशाखके
महीनेमें जो पंचाग्नि तपता है–दोपहरके समय ऊपरसे सूर्य तपता है और चारों तरफ अग्नि
जलाकर बीचमें बैठा है, उस तपस्वीको क्या पीड़ा नहीं होती ? वह तप तो उसका मनगढ़ंत है, पर यह रोगरूपी तप भगवान्का दिया हुआ है । बताओ, कौन-सा तप
बढ़िया है ? अतः रोग होनेपर ऐसा माने कि भगवान्की इच्छासे तप हो रहा है, तो
पीड़ामें भी आनन्द आयेगा । एक व्रत रखता है, कुछ खाता नहीं और एकको अन्न
नहीं मिलता । दोनों ही भूखे रहते हैं । परन्तु व्रत रखनेवालेके मनमें अन्न न
मिलनेका दुःख नहीं होता, प्रसन्नता होती है । नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! –‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे |