।। श्रीहरिः ।।

 



आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
              भक्तशिरोमणि 
      श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


माधुर्य-रतिके दो भेद हैं‒स्वकीया और परकीया । ‘स्वकीया माधुर्य-रति’ में पति-पत्नीके सम्बन्धका भाव रहता है । पतिव्रता स्त्री अपने माता, पिता, भाई, कुल आदि सबका त्याग करके अपने-आपको पतिकी सेवामें अर्पित कर देती है । इतना ही नहीं, वह अपने गोत्रका भी त्याग करके पतिके गोत्रकी बन जाती है[*] । अपना तन, मन, धन, बल, बुद्धि आदि सब कुछ पतिके अर्पण करके सर्वथा पतिके परायण हो जाती है । उसमें दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒सभी भाव विद्यमान रहते हैं । वह दासीकी तरह पतिकी सेवा करती है, मित्रकी तरह पतिको उचित सलाह देती है और माताकी तरह भोजन, वस्त्र आदिसे पतिका पालन करती है तथा उसके सुख-आरामका खयाल रखती है[†]

‘परकीया माधुर्य-रति’ में अपनी पत्नीसे भिन्न स्त्री (परनारी)-के सम्बन्धका और अपने पतिसे भिन्न पुरुष (परपुरुष या उपपति)-के सम्बन्धका भाव रहता है । यद्यपि लौकिक दृष्टिसे यह सम्बन्ध व्यभिचार होनेसे महान्‌ पतन करनेवाला है, तथापि पारमार्थिक दृष्टिसे इस सम्बन्धका भाव बहुत उन्नति करनेवाला है । यद्यपि पत्नी अपने पतिकी सेवा करती है, तथापि वह अधिकारपूर्वक पतिसे यह आशा भी रखती है कि वह रोटी, कपड़ा, मकान आदि जीवन-निर्वाहकी वस्तुओंका प्रबन्ध करे और बाल-बच्चोंके पालन-पोषण, विद्याध्ययन, विवाह आदिकी व्यवस्था करे । परन्तु परकीया-भावमें अपने इष्टको सुख पहुँचानेके सिवाय कोई भी कामना या स्वार्थ नहीं रहता । स्वकीया-भावकी अपेक्षा परकीया-भावमें अपने प्रेमास्पदका चिन्तन भी अधिक होता है और उससे मिलनेकी इच्छा भी तीव्र होती है । स्वकीया-भावमें तो हरदम साथमें रहनेसे प्रेमास्पदके आचरणोंको लेकर उसमें दोषदृष्टि भी हो सकती है; परन्तु परकीया-भावमें प्रेमास्पदमें दोषदृष्टि होती ही नहीं । यद्यपि लौकिक परकीया-भावमें अपने सुखकी इच्छा भी रहती है, तथापि पारमार्थिक परकीया-भावमें भक्तके भीतर अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं रहती । उसमें केवल एक ही लगन रहती है कि प्रेमास्पद (भगवान्‌) को अधिक-से-अधिक सुख कैसे पहुँचे ! उसका अहंभाव भगवान्‌में लीन हो जाता है ।

हनुमान्‌जीका भाव स्वकीया अथवा परकीया माधुर्य-रतिसे भी श्रेष्ठ है ! उन्होंने वानरका शरीर इसलिये धारण किया है कि उनको अपने प्रेमास्पदसे अथवा दूसरे किसीसे किंचिन्मात्र भी कोई वस्तु लेनेकी जरूरत न पड़े । उनको न रोटीकी जरूरत है, न कपड़ेकी जरूरत है, न मकानकी जरूरत है, न बाल-बच्चोंके देखभालकी जरूरत है, न मान-बड़ाई आदिकी जरूरत है ! वानर तो जंगलमें फल-फूल-पत्ते खाकर और पेड़ोंपर रहकर ही जीवन-निर्वाह कर लेता है । लौकिक परकीया-भावमें प्रेमीका अपने माता-पिता, भाई-बहन आदिके साथ भी सम्बन्ध रहता है; परन्तु हनुमान्‌जीका एक भगवान्‌ श्रीरामके सिवाय और किसीसे सम्बन्ध है ही नहीं ।



[*]  भक्तके लिये कहा गया है‒‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को ।’ (कवितावली, उत्तर १०७) ।

[†] कार्ये दासी  रतौ  रम्भा  भोजने  जननीसमा ।

   विपत्सु मन्त्रिणी भर्तुः सा च भार्या पतिव्रता ॥

(पद्मपुराण, सृष्टि ४७/५६)