।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
               सेवा (परहित)


दूसरोंका अहित करनेसे अपना अहित और दूसरोंका हित करनेसे अपना हित होता है‒यह नियम है ।

         

संसारका सम्बन्ध ऋणानुबन्ध’ है । इस ऋणानुबन्धसे मुक्त होनेका उपाय है‒सबकी सेवा करना और किसीसे कुछ न चाहना ।

         

साधक परमात्माके सगुण या निर्गुण किसी भी रूपकी प्राप्ति चाहता हो, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना अत्यन्त आवश्यक है ।

         

साधकको संसारकी सेवाके लिये ही संसारमें रहना है, अपने सुखके लिये नहीं ।

         

सच्चे हृदयसे भगवान्‌की सेवामें लगे हुए साधकके द्वारा प्राणिमात्रकी सेवा होती है; क्योंकि सबके मूल भगवान् ही हैं ।

         

साधकको अपने ऊपर आये बड़े-से-बड़े दुःखको भी सह लेना चाहिये और दूसरेपर आये छोटे-से-छोटे दुःखको भी सहन नहीं करना चाहिये ।

         

दूसरोंको सुख पहुँचानेकी इच्छासे अपनी सुखेच्छा मिटती है ।

         

किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो‒यह भाव महान् भजन है ।

         

जैसे मनुष्य आफिस जाता है तो वहाँ केवल आफिसका ही काम करता है, ऐसे ही इस संसारमें आकर केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं । फिर सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा ।

         

समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य‒इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है ।

         

संयोगजन्य सुखके मिलनेसे जो प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता अगर दूसरोंको सुख पहुँचानेमें होने लग जाय तो फिर कल्याणमें सन्देह नहीं है ।

         

हमें जो सुख-सुविधा मिली है, वह संसारकी सेवा करनेके लिये ही मिली है ।