।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    वैषाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


प्रश्ननवें अध्यायके छठे श्‍लोकमें भगवान्‌ कहते हैं  कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं और तेरहवें अध्यायके तीसवें श्‍लोकमें कहते हैं कि सम्पूर्ण भाव, प्राणी आदि एक प्रकृतिमें स्थित हैं, तो वास्तवमें प्राणी भगवान्‌में स्थित हैं या प्रकृतिमें ?

ऊत्तरभगवान्‌के अंश होनेसे सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वतः भगवान्‌में ही स्थित हैं और वे भगवान्‌से कभी अलग हो सकते ही नहीं । परन्तु उन प्राणियोंके जो शरीर हैं, वे प्रकृतिसे उत्पन्न होनेसे, प्रकृतिके अंश होनेसे प्रकृतिमें ही स्थित हैं ।

प्रश्नमैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे हूँ; परन्तु जो मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ (९ । २९)‒भगवान्‌का यह पक्षपात क्यों ? यदि पक्षपात है, तो ‘मैं सबमें सम हूँ’‒यह कैसे ?

उत्तरयह पक्षपात ही तो समता है ! अगर भगवान्‌ भजन करनेवाले और भजन न करनेवालेके साथ एक समान भाव रखें तो यह समता कैसी हुई ? और भजन करनेका क्या माहात्म्य हुआ ! अतः भजन करनेवाले और न करनेवालेके साथ यथायोग्य बर्ताव करना ही भगवान्‌की समता है; और अगर भगवान्‌ ऐसा नहीं करते तो यह भगवान्‌की विषमता है । वास्तवमें देखा जाय तो भगवान्‌में विषमता है ही नहीं । भगवान्‌में विषमता तो भजन करनेवालेके भावोंने पैदा की है अर्थात् जो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके केवल भगवान्‌में ही लग जाता है, उसके अनन्यभावके कारण भगवान्‌में ऐसी विषमता हो जाती है, भगवान्‌ करते नहीं ।

प्रश्न‒भगवद्दर्शन होनेके बाद मोह नहीं रहता । अर्जुनने भगवान्‌के विराटरूप, चतुर्भुजरूप और द्विभुजरूपतीनोंके दर्शन कर लिये थे, फिर भी उनका मोह दूर क्यों नहीं हुआ ?

उत्तरदर्शन देनेके बाद भक्तका मोह दूर करने, तत्त्वज्ञान करानेकी जिम्मेदारी भगवान्‌पर ही रहती है । अर्जुनका मोह आगे चलकर नष्ट हो ही गया (१८ । ७३), इससे सिद्ध होता है कि भगवद्दर्शन होनेके बाद मोह नष्ट होता ही है । अर्जुनने अपना मोह नष्ट होनेमें न तो गीतोपदेशको कारण माना और न दर्शनको, प्रत्युत भगवत्कृपाको ही कारण माना है‒‘त्वत्प्रसादात्’ (१८ । ७३) ।

प्रश्नतेरहवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकमें परमात्माको ज्ञेय कहा है और अठारहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें संसारको ज्ञेय कहा है । इसका क्या तात्पर्य है ?

उत्तरये दोनों विषय अलग-अलग हैं । तेरहवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकमें बताया गया है कि परमात्माको जरूर जानना चाहिये; क्योंकि परमात्माको यथार्थरूपसे जान लेनेपर कल्याण हो जाता है; और अठारहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोकमें बताया गया है कि जाननेमें आनेवाला दृश्यमात्र संसार है, जिससे व्यवहारकी सिद्धि होती है ।