।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      वैषाख अमावस्या, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


प्रश्नभगवान्‌ सबके हृदयमें निवास करते हैं (१३ । १७; १५ । १५; १८ । ६१); परन्तु आजकल डॉक्टर लोग हृदयका प्रत्यारोपण कर देते हैं, तो फिर भगवान्‌ कहाँ रहते हैं ?

उत्तर‒भगवान्‌ तो सब जगह ही निवास करते हैं, पर हृदय उनका उपलब्धि-स्थान है; क्योंकि हृदय शरीरका प्रधान अंग है और सभी श्रेष्ठ भाव हृदयमें ही पैदा होते हैं । जैसे गायके सम्पूर्ण शरीरमें दूध व्याप्त होनेपर भी वह उसके स्तनोंसे ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वीमें सब जगह जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही प्राप्त होता है, ऐसे ही भगवान्‌ सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण होते हुए भी हृदयमें प्राप्त होते हैं ।

डॉक्टर लोग जिस हृदयका प्रत्यारोपण करते हैं, वह हृत्पिण्ड कहलाता है । उस हृत्पिण्डमें हृदय-शक्ति है, उस शक्तिमें भगवान्‌ निवास करते हैं । प्रत्यारोपण हृत्पिण्डका होता है, उसमें रहनेवाली शक्तिका नहीं । शक्ति तो अपने स्थानपर ज्यों-की-त्यों ही रहती है । जैसे नेत्र दीखते हैं, पर देखनेकी शक्ति (नेत्रेन्द्रिय) नहीं दीखती; क्योंकि वह सूक्ष्मशरीरमें रहती है, ऐसे ही हृत्पिण्ड दीखता है, पर उसमें रहनेवाली शक्ति नहीं दीखती ।

प्रश्नअपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही पुरुष (चेतन) भोक्ता बनता है; परन्तु तेरहवें अध्यायके इक्कीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने प्रकृतिमें स्थित पुरुषको भोक्ता बताया है; ऐसा क्यों ?

उत्तरपुरुष (चेतन)-को प्रकृतिमें स्थित बतानेका तात्पर्य है कि जैसे विवाह होनेपर स्त्रीके सम्पूर्ण सम्बन्धियोंके साथ पुरुषका सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही एक शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे अर्थात् एक शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे मात्र प्रकृतिके साथ, सम्पूर्ण शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है ।

प्रश्नअपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही तो पुरुष कर्ता और भोक्ता बनता है; परन्तु तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि यह पुरुष शरीरमें स्थित रहता हुआ भी कर्ता और भोक्ता नहीं है; यह कैसे ?

उत्तरयहाँ भगवान्‌ प्राणिमात्रके वास्तविक स्वरूपको बता रहे हैं कि वास्तवमें अज्ञानी-से-अज्ञानी मनुष्य भी स्वरूपसे कभी कर्ता और भोक्ता नहीं बनता अर्थात् उसके स्वरूपमें कभी कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं आता । परन्तु अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको कर्ता और भोक्ता मान लेता है (३ ।२७; ५ ।१५) और वह कर्तृत्व-भोक्तृत्वभावमें बँध जाता है । अगर उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्वभाव न हो तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता ही है (१८ । १७) ।

प्रश्नरजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर और रजोगुणकी प्रधानतामें मरनेवाला प्राणी मनुष्यलोकमें जन्म लेता है (१४ । १५,१८)‒इन दोनों बातोंसे यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोकमें सभी मनुष्य रजोगुणवाले ही होते हैं, सत्त्वगुण और तमोगुणवाले नहीं । परन्तु गीतामें जगह-जगह तीनों गुणोंकी बात भी आयी है (७ । १३; १४ । ६१८; १८ । २०४० आदि) । इसका क्या तात्पर्य है ?

उत्तरऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति‒इन तीनोंमें तीनों गुण रहते हैं; परन्तु ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी, मध्यगति (मनुष्यलोक)-में रजोगुणकी और अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता रहती है । तभी तो तीनों गतियोंमें प्राणियोंके सात्त्विक, राजस और तामस स्वभाव होते हैं[*] 



[*] इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताकी ‘साधक-संजीवनी’ हिंदी-टीकामें चौदहवें अध्यायके अठारहवें श्‍लोककी व्याख्या देखनी चाहिये ।