।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें श्रद्धा



श्रद्धा द्विधा श्रीहरिगीतगीते    दैवी प्रसङ्गेन मताऽऽसुरी च ।

दैवी सदा सत्त्वगुणेन युक्ता  रजस्तमोभ्यामपरा निबोध्या ॥

भगवान्‌ने गीतामें श्रद्धाको मनुष्यमात्रका साक्षात् स्वरूप माना है‒योः यच्छ्रद्धः स एव सः’ (१७ । ३) अर्थात् जो जैसी श्रद्धावाला होता है, वैसा ही उसका स्वरूप होता है ।

इन्द्रियोंसे, अन्तःकरणसे जिस विषयका ज्ञान नहीं होता, उस विषयमें आदरभावसहित जो दृढ़ विश्वास है, उसको श्रद्धा’ कहते हैं । इस श्रद्धाके दो विभाग हैं‒दैवी और आसुरी । जिस श्रद्धासे अर्थात् जिनमें श्रद्धा करनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है, तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, भगवद्दर्शन हो जाते हैं, वह श्रद्धाका दैवी’ विभाग है और जिस श्रद्धासे अर्थात् जिनमें श्रद्धा करनेसे बन्धन हो जाता है, अधोगति हो जाती है, वह श्रद्धाका आसुरी’ विभाग है । इन्हीं दो विभागोंको सात्त्विकी और राजसी-तामसी भी कहा है अर्थात् दैवी श्रद्धाको सात्त्विकी’ और आसुरी श्रद्धाको राजसी-तामसी’ कहा है ।

भगवान्‌ और उनके मतमें, महापुरुष और उनके वचनोंमें, ग्रन्थोंमें और शास्त्रीय शुभकर्मोंमें, सात्त्विक तपमें श्रद्धा करना दैवी (सात्त्विकी) श्रद्धा है । देवताओंमें और सकाम अनुष्ठानोंमें, यक्ष-राक्षसोंमें, भूत-प्रेतादिमें श्रद्धा करना आसुरी (राजसी-तामसी) श्रद्धा है । गीतामें इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है‒

दैवी श्रद्धा

(१) भगवान्‌ और उनके मतमें श्रद्धा‒सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है (६ । ४७) । नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर और मेरेमें मनको लगाकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ हैं (१२ । २) । मेरेमें श्रद्धा रखनेवाले और मेरे परायण हुए जो भक्त इस धर्ममय अमृतका रुचिपूर्वक सेवन करनेवाले हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं (१२ । २०) । जो मनुष्य दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे इस मतका सदा अनुष्ठान करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं (३ । ३१) ।

(२) महापुरुष और उनके वचनोंमें श्रद्धा‒महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं और महापुरुष अपनी वाणीसे जिसका विधान कर देते हैं, दूसरे लोग उसका अनुवर्तन करते हैं (३ । २१) । जो लोग कर्मयोग, सांख्ययोग, ध्यानयोग आदि साधनोंको नहीं जानते, प्रत्युत केवल महापुरुषोंके वचनानुसार चलते हैं, वे भी मृत्युको तर जाते हैं (१३ । २५) ।