।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीताका योग



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योगशब्दस्य  गीतायामर्थस्तु  त्रिविधो  मतः ।

सामर्थ्ये चैव सम्बन्धे समाधौ हरिणा स्वयम् ॥

‘योग’ नाम मिलनेका है । जो दो सजातीय तत्त्व मिल जाते हैं, तब उसका नामयोग’ हो जाता है । आयुर्वेदमें दो ओषधियोंके परस्पर मिलनेकोयोग’ कहा है । व्याकरणमें शब्दोंकी संधिकोयोग’ (प्रयोग) कहा है । पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधकोयोग’ कहा है । इस तरहयोग’ शब्दके अनेक अर्थ होते हैं, पर गीताका योग’ विलक्षण है ।

गीतामेंयोग’ शब्दके बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ है । उनके हम तीन विभाग कर सकते है‒

(१) युजिर् योगे’ धातुसे बनायोग’ शब्द जिसका अर्थ है‒समरूप परमात्माके साथ नित्य सम्बन्ध; जैसे‒समत्वं योग उच्यते’ (२ । ४८) आदि । यही अर्थ गीतामें मुख्यतासे आया है ।

(२) युज् समाधौ’ धातुसे बनायोग’ शब्द, जिसका अर्थ है‒चित्तकी स्थिरता अर्थात्‌ समाधिमें स्थिति; जैसे‒यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६ । २०) आदि ।

(३) युज् संयमने’ धातुसे बनायोग’ शब्द, जिसका अर्थ है‒सामर्थ्य, प्रभाव; जैसे‒पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५) आदि ।

पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधकोयोग’ नामसे कहा गया है‒योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१ । १२) और उस योगका परिणाम बताया है‒‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । वृत्तिसारूप्यमितरत्र ।’ (१ । ३-४) । इस प्रकार पातंजल योगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया है, उसीको गीतामें ‘योग’ के नामसे कहा गया है (२ । ४८; ६ । २३) । तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिकोयोग’ कहती है । उस समतामें स्थित (नित्ययोग) होनेपर फिर कभी उससे वियोग नहीं होता, कभी वृत्तिरूपता नहीं होती, कभी व्युत्थान नहीं होता । वृत्तियोंका निरोध होनेपर तोनिर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समतामें स्थित होनेपरनिर्विकल्प बोध’ होता है । निर्विकल्प बोध’ अवस्थातीत और सम्पूर्ण अवस्थाओंका प्रकाशक तथा सम्पूर्ण योगोंका फल है ।

जीवका परमात्माके साथ सम्बन्ध (योग) नित्य है, जिसका कभी किसी भी अवस्थामें, किसी भी परिस्थितिमें वियोग नहीं होता । कारण कि परमात्माका ही अंश होनेसे इस जीवका परमात्माके साथ सम्बन्ध नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों ही रहता है । शरीर-संसारके साथ संयोग होनेसे अर्थात् सम्बन्ध मान लेनेसे उस सम्बन्ध (नित्ययोग)-का अनुभव नहीं होता । शरीर-संसारके साथ माने हुए संयोगका वियोग (विमुखता, सम्बन्ध-विच्छेद) होते ही उस नित्ययोगका अनुभव हो जाता है‒तं विद्यात् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (६ । २३) अर्थात् दुःखोंके साथ संयोगका वियोग हो जानेका नाम ‘योग’ है[*] ।तात्पर्य है कि भूलसे शरीर-संसारके साथ माने हुए संयोगका वियोग हो जाने और समरूप परमात्माके साथ सम्बन्धका उद्देश्य हो जाने, उसका अनुभव हो जानेका नाम ‘योग’ है । यह योग सब समयमें है, सब देशमें है, सब वस्तुओंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है और तो क्या कहें, इस नित्ययोगका वियोग है ही नहीं, कभी हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं । यही गीताका मुख्य योग है । इसी योगकी प्राप्तिके लिये गीताने कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग, अष्टाङ्गयोग, प्राणायाम, हठयोग आदि साधनोंका वर्णन किया है । पर इन साधनोंको योग तभी कहा जायगा, जब असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद और परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धका अनुभव होगा ।



[*] गीतामें ‘योगःकर्मसु कौशलम्’ (२ । ५०)‒ऐसा वाक्य भी आया है, पर यह वाक्य योगकी परिभाषा नहीं है, प्रत्युत इसमें योगकी महिमा बतायी गयी है कि कर्मोंमें योगके सिवाय और कोई महत्त्व नहीं है ।