।। श्रीहरिः ।।

 



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें त्यागका स्वरूप



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साधक वही होता है, जो त्यागी होता है अर्थात् जो संसारको देता-ही-देता है, लेता है ही नहीं । वह लेता है, तो भी देता है और देता है, तो भी देता है अर्थात् वह अन्‍न-जल, वस्त्र आदि लेता है तो दुनियाके हितके लिये ही लेता है और अन्‍न-जल आदि देता है तो दुनियाके हितके लिये ही देता है । ऐसे ही वह चुपचाप बैठा रहता है, कुछ भी नहीं करता, तो भी वह देता है; क्योंकि उसके जीनेमात्रसे, दर्शनमात्रसे दुनियाका स्वतः हित होता है । उसका शरीर न रहनेके बाद भी उसके भावोंसे, उसके आचरणोंको पढ़ने-सुनने-स्मरण करनेसे और उसके रहनेके स्थानसे दुनियाका हित होता है । तात्पर्य है कि वह सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५; १२ । ४) होता है, उसका जीवन त्यागमय होता है; अतः वह लेता कुछ नहीं और सब कुछ देता है ।

गीतामें सांख्ययोगकोसंन्यास’ और कर्मयोगकोत्याग’ नामसे भी कहा गया है (१८ । १) । जिसकी धरोहर है, उसको दे देनेका नामसंन्यास’ है । शरीर और संसार प्रकृतिकी धरोहर है; अतः उनको प्रकृतिको दे देना अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध नहीं रखनासंन्यास’ है । जो अपना नहीं है, उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर देनेका नाम त्याग’ है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदिमें ममताका, अपनेपनका सम्बन्ध न रखना  ‘त्याग’ है; क्योंकि वे सभी संसारके हैं, अपने नहीं । उन मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्‍ति न रखकर केवल संसारके लिये ही कर्म करना चाहिये, अपने लिये नहीं । अपने लिये, अपने व्यक्तिगत स्वार्थके लिये कर्म करनेसे मनुष्य बँधता है‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (३ । ९); और केवल यज्ञके लिये, दूसरोंके लिये, संसारके लिये कर्म करनेसे मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं‒यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३) ।

कर्मोंका आरम्भ न करनेसे भी सिद्धि नहीं मिलती और कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेमात्रसे भी सिद्धि नहीं मिलती (३ । ४) । कर्मोंका आरम्भ न करनेसे सिद्धि नहीं होती; क्योंकि कर्मोंका आरम्भ किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि नहीं होती । जो योगपर आरूढ़ होना चाहता है, अपनेमें समताको लाना चाहता है, उसके लिये निष्कामभावसे कर्म करना कारण है (६ । ३) । तात्पर्य है कि कर्म किये बिना मनुष्य योगपर आरूढ़ नहीं होता, क्योंकि कर्म करनेसे ही कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धि, फलकी प्राप्‍ति-अप्राप्‍तिमें सम रहनेका अनुभव होता है ।

कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेमात्रसे भी सिद्धि नहीं होती; क्योंकि जबतक कर्तृत्व-अभिमान (करनेका भाव) रहता है, तबतक सांख्ययोगकी सिद्धि नहीं होती । कर्तृत्व-अभिमानका त्याग करनेसे ही सिद्धि होती है; क्योंकि वास्तवमेंकरना’ प्रकृतिमें ही है, अपनेमें नहीं (१३ । ३१) । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी कर्तृत्व-अभिमानका त्याग कर दे, तो फिर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देनेपर भी उसके साधनकी सिद्धि हो जाती है । परन्तु कर्मयोगमें तो कर्तव्य-कर्म करनेसे ही सिद्धि होती है ।

जिनसे संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है, ऐसे कर्म अकुशल’ कहलाते हैं । कर्मयोगी अकुशल कर्मोंका त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं । इसमें देखा जाय तो त्याज्य वस्तु इतनी बन्धनकारक नहीं है, जितना द्वेष बन्धनकारक है । ऐसे ही कर्मयोगी कुशल कर्मोंको तो करता है, पर रागपूर्वक नहीं । इसमें भी देखा जाय तो कुशल कर्मोंको करनेसे जितना लाभ होता है, उससे अधिक दोष रागपूर्वक कर्म करनेसे होता है । इस तरह कर्म करना ही वास्तवमें त्याग है ( १८ । १०) ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें त्यागका स्वरूप



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बाह्यव्यक्तिपदार्थानां न त्यागस्त्याग उच्यते ।

कामादीनां परित्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥

त्यागके विषयमें प्रायः लोगोंकी ऐसी धारणा बनी हुई है कि जो घर-परिवार, स्त्री-पुत्र, माता-पिता आदिको छोड़कर साधु-संन्यासी हो जाते हैं, वे त्यागी हैं । परन्तु वास्तवमें यह त्याग नहीं है; क्योंकि जबतक अन्तःकरणमें सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदिमें राग है, प्रियता है, उनका महत्त्व है, तबतक बाहरसे घर-परिवार, गृहस्थको छोड़नेपर भी त्याग नहीं होता । अगर बाहरसे घर-परिवार छोड़नेमात्रसे त्याग हो जाता तो फिर सब मरनेवालोंका कल्याण हो जाना चाहिये; क्योंकि वे अपने घर-परिवारको और खास अपने कहलानेवाले शरीरको भी छोड़ देते हैं ! परन्तु उनका कल्याण नहीं होता; क्योंकि उन्होंने सांसारिक राग, आसक्‍ति, ममता आदिका त्याग नहीं किया, प्रत्युत इनके रहते हुए उनको मरना पड़ा ।

जो चीज अपनी नहीं होती, उसका भी त्याग नहीं होता और जो अपना स्वरूप है, उसका भी त्याग नहीं होता; जैसे‒अग्‍नि अपनी दाहिका और प्रकाशिका शक्‍तिका त्याग नहीं कर सकती; क्योंकि दाहिका और प्रकाशिका शक्‍ति अग्‍निका स्वरूप है । फिर त्याग किसका होता है ? जो चीज अपनी नहीं है, उसको अपना मान लिया‒इस झूठी मान्यताका, बेईमानीका ही त्याग होता है । जिसके साथ अपना सम्बन्ध कभी था नहीं, अभी है नहीं, आगे होगा नहीं और कभी हो सकता भी नहीं तथा बिना त्याग किये ही जिसका प्रतिक्षण हमारेसे सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है, उसके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करना ही वास्तविक त्याग है । तात्पर्य है कि वस्तु आदिका अभाव नहीं करना है, प्रत्युत उन वस्तुओंसे जो सम्बन्ध मान रखा है, उनमें जो आसक्‍ति, ममता कर रखी है, उसका त्याग करना है । यह त्याग ही वास्तविक त्याग है, जिससे तत्काल शान्ति मिलती है,‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ ( १२ । १२) ।

त्यागके विषयमें मुख्य बात है कि संसारमें केवल संसारके लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं । सात्त्विक त्यागका स्वरूप बताते हुए भगवान्‌ कहते हैं कि केवल कर्तव्यमात्र करना है, पर उसमें आसक्‍ति, ममता, फलेच्छा न हो । आसक्‍ति आदि न होनेसे शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है (१८ । ९) । कर्तव्यका पालन करनेमें कष्ट होता है, परिश्रम होता है, आराम नहीं मिलता‒ऐसा समझकर अर्थात् शारीरिक कष्टके भयसे कर्तव्यका त्याग किया जाय तो वह राजस त्याग होता है । राजस त्यागसे शान्ति नहीं मिलती (१८ । ८) । मोहके कारण, बिना विचार किये कर्तव्यका, क्रियाओंका, पदार्थोंका त्याग किया जाय तो वह तामस त्याग होता है (१८ । ७) । तामस त्याग मनुष्यको प्रमाद और आलस्यमें लगाता है, जिससे उसकी अधोगति होती है ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतोक्त प्रवृत्ति और आरम्भ



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वर्णाश्रमाभ्यां नियतं हि कर्म कार्यं प्रवृत्तिः कथिता बुधैश्‍च ।

कर्मणि भोगाय नवानि चैव कार्याणि चारम्भ उदीरितो वै ॥

भगवान्‌ने रजोगुणकी वृद्धिके लक्षण बताते हुएप्रवृत्ति’ औरआरम्भ’इन दोनोंका एक साथ प्रयोग किया है‒लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा’ (१४ । १२) । यद्यपि स्थूलदृष्टिसे प्रवृत्ति और कर्मोंका आरम्भ‒ये दोनों एक समान ही दीखते हैं, तथापि इन दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर है । अपने-अपने वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिमें रहते हुए प्राप्त परिस्थितिके अनुसार जो कर्तव्य सामने आ जाय, उसको सुचारुरूपसे सांगोपांग कर देनाप्रवृत्ति’ है; और भोग तथा संग्रहको बढ़ानेके उद्देश्यसे नये-नये कर्म प्रारम्भ करनाआरम्भ’ है । अतः प्रवृत्तिको तो निष्कामभावसे निर्लिप्‍ततापूर्वक करना चाहिये, उसका त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि निष्कामभावपूर्वक प्रवृत्ति करना योगारूढ़ होनेमें कारण है (६ । ३); परन्तु आरम्भका तो त्याग ही कर देना चाहिये; क्योंकि वह भोग और संग्रहकी आसक्‍ति बढ़ाकर पतन करनेवाला है ।

गीता परिस्थितिका परिवर्तन करनेके लिये नहीं कहती, प्रत्युत उसका परिमार्जन करनेके लिये कहती है, जिससे मनुष्य किसी परिस्थितिमें फँसे भी नहीं और वह जिस परिस्थितिमें स्थित है, वही परिस्थिति उसके कल्याणका साधन बन जाय । उसको अपने कल्याणके लिये नये कर्मोंका आरम्भ न करना पड़े और वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिका परिवर्तन न करना पड़े । कारण कि परमात्मा सब वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति, घटना आदिमें पूर्णरूपसे व्याप्त हैं ।

प्रवृत्ति (अपने कर्तव्यका पालन) तो सभी वर्ण-आश्रमोंमें होती है और होनी भी चाहिये; क्योंकि अपने-अपने कर्तव्यका पालन किये बिना सृष्टि-चक्रकी मर्यादा चलेगी ही नहीं और अपने कर्तव्यका त्याग करनेसे उद्धार नहीं होगा । अतः जो मनुष्य जिस-किसी वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदिमें स्थित है, उसको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन जरूर करना चाहिये ।

प्रवृत्ति (अपने कर्तव्यका पालन) तो गुणातीत मनुष्यके द्वारा भी होती है (१४ । २२), पर उसके द्वारा भोग और संग्रहके उद्देश्यसे कर्मोंका आरम्भ नहीं होता । कहीं-कहीं गुणातीत मनुष्यके द्वारा भी नये-नये कर्मोंका आरम्भ देखनेमें आता है; परन्तु उन कर्मोंके आरम्भमें उसके किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं होते । भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नये-नये कर्मोंका आरम्भ करनेवाले मनुष्यहमें तो परमात्मप्राप्‍ति ही करनी है’ऐसा एक निश्चय कर ही नहीं सकते (२ । ४४) ।

तात्पर्य है कि अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार निष्कामभावपूर्वक की गयी प्रवृत्ति बाधक नहीं है, प्रत्युत मुक्तिमें हेतु है । ऐसे ही अपने स्वार्थ, अभिमान, कामना, आसक्‍तिका त्याग करके केवल प्राणिमात्रके हितके लिये किये गये नये-नये कर्मोंका आरम्भ भी बाधक नहीं है । परन्तु इन आरम्भोंमें साधकको यह विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि कर्मोंका आरम्भ करते हुए कहीं हृदयमें पदार्थों और क्रियाओंका महत्त्व अंकित न हो जाय । अगर हृदयमें पदार्थों और क्रियाओंका महत्त्व अंकित हो जायगा तो उन कर्मोंमें साधककी निर्लिप्‍तता नहीं रहेगी अर्थात् वह साधक अपने पास रुपये-पैसे भी न रखता हो, पदार्थोंका संग्रह भी न करता हो तो भी उसके हृदयमें धन, पदार्थ और क्रियाओंका महत्त्व अंकित हो ही जायगा; तथा कार्य करते हुए और न करते हुए भी उन कार्योंका चिन्तन हो ही जायगा ।

भगवान्‌ने कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी‒तीनों ही साधकोंके लिये प्रवृत्ति (कर्म)-से निर्लिप्त रहनेकी बात कही है । कर्मयोगी साधकमें फलासक्ति न होनेसे वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता‒कुर्वन्नपि न लिप्यते’ (५ । ७) । ज्ञानयोगी साधकसम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा ही हो रहे हैं’ऐसा देखता है और स्वयंको अकर्ता अनुभव करता है (१३ । २९) । इसलिये वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । भक्तियोगी साधक सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण कर देता है; अतः वह कर्म करता हुआ भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ।

भगवान्‌ने कर्मयोगमें कर्मोंके आरम्भमें कामनाओं और संकल्पोंका त्याग तो बताया है, पर कर्मोंके आरम्भका त्याग नहीं बताया; क्योंकि कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्म करना आवश्यक है । कर्मोंको किये बिना कर्मयोगकी सिद्धि ही नहीं हो सकती (६ । ३) । परन्तु ज्ञानयोग और भक्तियोगमें भगवान्‌ने सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्याग बताया है; जैसे‒जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह गुणातीत कहा जाता है (१४ । २५); और जो सम्पूर्ण कर्मोंके आरम्भका त्यागी है, वह भक्त मुझे प्रिय है (१२ । १६) । कारण कि ज्ञानयोगी और भक्तियोगीकी सांसारिक कर्मोंसे उपरति रहती है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !


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