।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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(१६) पाँचवें अध्यायके उनतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो मेरेको सब कर्मोंका भोक्ता और सब लोकोंका मालिक मानते हैं, वे शान्तिको प्राप्‍त हो जाते हैं; और नवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें कहा कि जो मेरेको सब कर्मोंका भोक्ता और सब लोकोंका मालिक नहीं मानते, उनका पतन हो जाता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण शुभ कर्मोंके भोक्ता और सारे संसारके मालिक भगवान्‌ ही हैं । अतः मनुष्य अपनेको किसी भी कर्मका भोक्ता और किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदिका मालिक न माने, प्रत्युत भगवान्‌को ही माने ।

(१७) छठे अध्यायके दूसरे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता; और चौथे श्‍लोकमें कहा कि सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग करनेवाला मनुष्य योगारूढ़ (योगी) हो जाता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको अपना संकल्प नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत भगवान्‌के संकल्पमें अपना संकल्प मिला देना चाहिये अर्थात् भगवान्‌के विधानमें परम प्रसन्‍न रहना चाहिये ।

(१८) छठे अध्यायके सोलहवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जिसका आहार और सोना-जागना नियमित नहीं है, उसका योग सिद्ध नहीं होता; और सत्रहवें श्‍लोकमें कहा कि जिसका आहार-विहार और सोना-जागना नियमित है, उसका योग सिद्ध होता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि साधकको अपना जीवन नियमित बनाना चाहिये; क्योंकि जो मनमाने ढंगसे आचरण करता है, उसको सुख और सिद्धि नहीं मिलती ।

(१९) छठे अध्यायके छत्तीसवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि जिसका मन संयत नहीं है, उसके द्वारा योगका प्राप्‍त होना कठिन है; और उत्तरार्धमें कहा कि जिसका मन अपने वशमें है, उसके द्वारा योगका प्राप्‍त होना सुलभ है ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको अपनी इन्द्रियों और मनको अपने वशमें कर ही लेना चाहिये, उनके वशमें कभी नहीं होना चाहिये ।

(२०) नवें अध्यायके चौबीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, उनका पतन हो जाता है; और इकतीसवें श्‍लोकमें कहा कि मेरे भक्तका पतन नहीं होता ।

‒इसका तात्पर्य है कि सकामभावसे ऊँचा-से-ऊँचा शुभ कर्म करनेवाला भी अगर भगवान्‌से विमुख है तो उसका पतन हो जाता है; और पापी-से-पापी भी अगर भगवान्‌के सम्मुख (शरण) हो जाता हूँ तो उसका पतन नहीं होता ।

(२१) ग्यारहवें अध्यायके तिरपनवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि वेदाध्ययन, दान और तपके द्वारा मैं देखा नहीं जा सकता, और चौवनवें श्‍लोकमें कहा कि अनन्यभक्तिके द्वारा मैं देखा जा सकता हूँ ।

‒इसका तात्पर्य है कि वेदाध्ययन, दान आदि शुभ कर्मोंमें क्रियाकी प्रधानता है और अनन्यभक्तिमें भावकी प्रधानता है । क्रियाएँ सीमित होती है और भाव असीम होता है । क्रियाओंका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर भावका आरम्भ और अन्त नहीं होता । भाव अनन्त होता है । जीव भी नित्य है और भगवान्‌ भी नित्य हैं; अतः नित्यके प्रति जो भाव होता है, वह भी नित्य ही होता है । इसलिये मनुष्य क्रियाओंसे भगवान्‌को देख नहीं सकता, प्रत्युत भाव (अनन्यभक्ति)-से ही भगवान्‌को देख सकता है, प्राप्‍त कर सकता है । अगर यज्ञ, दान आदिमें भी भावकी प्रधानता हो जाय तो वे क्रियाएँ भी भक्तिमें परिणत हो जाती हैं । भगवान्‌ भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं‒भावग्राही जनार्दनः’; अतः भावसे ही भगवान्‌ दर्शन देते हैं, क्रियासे नहीं ।

(२२) अठारहवें अध्यायके अट्ठावनवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि अगर (मेरी आज्ञाके अनुसार) तू मेरेमें अपना चित्त लगा देगा तो मेरी कृपासे तू सम्पूर्ण विघ्‍नोंको तर जायगा और उत्तरार्धमें कहा कि अगर तू अहंकारके आश्रित होकर मेरी बात (आज्ञा) नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा ।

‒इसका तात्पर्य है कि भगवान्‌के सम्मुख होनेसे उद्धार होता है और विमुख होनेसे पतन होता है । अतः साधकको चाहिये कि वह भगवान्‌के ही आश्रित रहे, अहंकारका आश्रय कभी न ले ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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(१०) तीसरे अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके गुणोंद्वारा होती हैं; परन्तु मूढ़ मनुष्य अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं; और अट्ठाईसवें श्‍लोकमें कहा कि तत्त्ववेत्ता मनुष्य अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता नहीं मानता । अतः मूढ़ मनुष्य तो क्रियाओंमें आसक्त होकर बँध जाते हैं और तत्त्ववेत्ता मनुष्य क्रियाओंमें आसक्त न होकर मुक्‍त हो जाते हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानयोगी साधक अपनेको किसी भी क्रियाका कर्ता न माने । वास्तवमें क्रियामात्र प्रकृतिमें ही है । आत्मा अकर्ता ही है । आत्मामें कर्तापन कभी हुआ नहीं, है नहीं और होना सम्भव भी नहीं; परन्तु जो मनुष्य संसारमें मोहित होते हैं, वे आत्माको कर्ता मान लेते हैं और जो तत्त्वको यथार्थरूपसे जाननेवाले हैं, वे आत्माको कर्ता नहीं मानते ।

(११) तीसरे अध्यायके अट्ठाईसवें श्‍लोकमें ‘गुण ही गुणोंमें बरत रहे है, ऐसा कहकर गुणोंको कर्ता बताया; और चौदहवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें गुणोंके सिवाय अन्य कर्ताका निषेध किया ।

‒इसका तात्पर्य है कि गुण ही कर्ता है, स्वयं (आत्मा) नहीं अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंके द्वारा और गुणोंमें ही होती है, स्वयंके द्वारा और स्वयंमें नहीं ।

(१२) तीसरे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो दोषदृष्टिसे रहित होकर श्रद्धापूर्वक मेरे मतका अनुष्ठान करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं, मुक्‍त हो जाते हैं, और बत्तीसवें श्‍लोकमें कहा कि जो मेरेमें दोषदृष्टि करके मेरे मतका अनुष्ठान नहीं करते, उनका पतन हो जाता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यमात्रको अपना उद्धार करनेके लिये दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक भगवान्‌की कही हुई बातों (मत)-का निष्काम-भावपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये ।

(१३) चौथे अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें आया है कि श्रद्धावान् मनुष्यको ज्ञान हो जाता है, और चालीसवें श्‍लोकमें आया है कि अश्रद्धावान् मनुष्यको संशय रहता है अर्थात् उसे ज्ञान नहीं होता ।

‒इसका तात्पर्य है कि जो इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका विषय नहीं है, उस परमात्मापर श्रद्धा करनी चाहिये; क्योंकि उसकी प्राप्‍तिका मुख्य साधन श्रद्धा ही है ।

(१४) पाँचवें अध्यायके चौथे श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि जो सांख्य और योगको फलमें अलग-अलग मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ हैं, और पाँचवें श्‍लोकमें कहा कि जो सांख्य और योगको फलमें एक मानते हैं, वे ही वास्तवमें सही देखते हैं अर्थात् वे ही पण्डित हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि सांख्ययोग और कर्मयोग‒ये दोनों अनुष्ठान करनेमें दो (अलग-अलग) हैं, पर फलमें दोनों एक ही हैं अर्थात् सांख्ययोगसे जिस तत्त्वकी प्राप्‍ति होती है, उसी तत्त्वकी प्राप्‍ति कर्मयोगसे होती है ।

(१५) पाँचवें अध्यायके बारहवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि योगी कर्मफलका त्याग करके कर्म करता है तो सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्‍त होता है; और उत्तरार्धमें कहा कि अयोगी (भोगी) अपने स्वार्थके लिये कर्म करता है तो बँध जाता है, जन्म-मरणके चक्‍करमें चला जाता है ।

‒इसका तात्पर्य हैं कि मनुष्यको सदा योगी अर्थात् कर्मफलका त्यागी होना चाहिये । उसको कर्मफलका भोगी नहीं बनना चाहिये ।


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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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(६) तीसरे अध्यायके नवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञके अतिरिक्त कर्म अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक हो जाते हैं‒‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यन्त्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ और चौथे अध्यायके तेईसवें श्‍लोकमें कहा कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं‒यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ।’

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको केवल दूसरोंके हितके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करने चाहिये, अपने स्वार्थके लिये नहीं ।

(७) तीसरे अध्यायके तेरहवें श्‍लोकके पूर्वार्धमें भगवान्‌ने कहा कि यज्ञशेषका अनुभव करनेवाले सब पापोंसे मुक्‍त हो जाते हैं; और उत्तरार्धमें कहा कि जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापी पाप ही कमाते हैं ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये । कारण कि निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे मुक्ति हो जाती है (३ । १९) और सकामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे बन्धन हो जाता है (५ । १२) ।

(८) तीसरे अध्यायके इक्‍कीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही आचरण दूसरे मनुष्य करते हैं; और पचीसवें श्‍लोकमें कहा कि कर्मविधायक शास्‍त्रों, कर्मों और कर्मफलोंपर आस्था रखनेवाले आसक्तियुक्त अज्ञानी मनुष्य जैसे तत्परतापूर्वक कर्म करते हैं, वैसे ही आसक्तिरहित होकर विद्वान (ज्ञानी) मनुष्यको भी तत्परतापूर्वक कर्म करने चाहिये । इस प्रकार इक्‍कीसवें श्‍लोकमें श्रेष्ठ (ज्ञानी) मनुष्यको साधारण मनुष्योंके लिये आदर्श बताया है और पचीसवें श्‍लोकमें अज्ञानी मनुष्योंको ज्ञानी मनुष्यके लिये आदर्श बताया है ।[*]

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुष आदर्श’ रहे अथवा अनुयायी’ बने, उसके द्वारा स्वतः लोकसंग्रह होता है ।

(९) तीसरे अध्यायके बाईसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि मेरे लिये त्रिलोकीमें कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्तव्य-कर्म करता हूँ; और तेईसवें श्‍लोकमें कहा कि अगर मैं निरालस्य होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ तो लोग भी कर्तव्य-कर्म छोड़कर आलसी हो जायँगे ।

‒इसका तात्पर्य है कि ज्ञानी महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी उसको लोकसंग्रहके  लिये लोकमर्यादाको अटल रखनेके लिये कर्तव्य-कर्म करने चाहिये; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ भी निरालस्य होकर तत्परतापूर्वक लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्मका पालन करते हैं



[*] विद्वान् मनुष्यके लिये अज्ञानी मनुष्योंके कर्म करनेका प्रकारमात्र आदर्श है, उनका भाव नहीं । इसीलिये विद्वान् मनुष्यके लिये असक्तः’ (आसक्तिरहित) पद आया है ।


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  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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अन्वयव्यतिरेकाभ्यां    विषयस्तु   दृढायते ।

स्पष्टरूपेण सा शैली गीतायां दृश्यते प्रभोः ॥

जिन बातोंको काममें लानेसे कार्य सिद्ध होता है, वे बातें अन्वयकहलाती हैं और जिन बातोंको काममें न लानेसे कार्य सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत बाधा लगती है, वे बातें व्यतिरेक’ कहलाती हैं । ऐसी अन्वय और व्यतिरेककी बातोंसे विषय स्पष्ट होता है । अतः गीतामें विषयको स्पष्ट करनेके लिये भगवान्‌ने अनेक अन्वय और व्यतिरेक वाक्य कहे हैं; जैसे–

(१) दूसरे अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा शरीरी (आत्मा)-को नित्य, सर्वगत आदि समझनेसे शोक नहीं हो सकता; और छब्बीसवें-सत्ताईसवें श्‍लोकोमें कहा कि अगर तू शरीरीको नित्य जन्मने-मरनेवाला मान ले, तो भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि जन्मनेवालेकी निश्‍चित मृत्यु होगी और मरनेवालेका निश्‍चित जन्म होगा ।

‒इसका तात्पर्य है कि किसी भी दृष्टिसे मनुष्यके लिये शोक करना उचित नहीं है ।

(२) दूसरे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि अपने धर्मको देखकर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है; और तैतीसवें श्‍लोकमें कहा कि अगर तू इस धर्ममय युद्धको नहीं करेगा तो तेरेको पाप लगेगा ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको किसी भी दृष्टिसे, किसी भी अवस्था, परिस्थितिमें, किसी भी संकटमें अपने कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपने कल्याणके लिये निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना चाहिये ।

(३) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने बताया कि रागपूर्वक विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और चौसठवें-पैंसठवें श्‍लोकोंमें बताया कि रागरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे स्थितप्रज्ञताकी अर्थात् परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

‒इसका तात्पर्य है कि साधकको राग-द्वेष मिटाने चाहिये; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं (३ । ३४) ।

(४) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि जो विषयोंका चिन्तन करता है, उसका पतन हो जाता है; और छठे अध्यायके चालीसवें श्‍लोकमें कहा कि कल्याणकारी काम करनेवालेका पतन नहीं होता ।

‒इसका तात्पर्य है कि जो संसारके सम्मुख हो जाता है, उसका पतन हो जाता है; और जो किसी भी तरहसे भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, पारमार्थिक मार्गमें लग जाता है, उसका पतन नहीं होता ।

(५) दूसरे अध्यायके चौंसठवें-पैंसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है; और छाछठवें-सड़सठवें श्‍लोकोंमें कहा कि जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती । असंयमी होनेके कारण उसका मन उसकी बुद्धिको हर लेता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगीके लिये मन और इन्द्रियोंको वशमें रखना बहुत आवश्यक है ।


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