।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतोक्त अन्वय-व्यतिरेक

वाक्योंका तात्पर्य



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अन्वयव्यतिरेकाभ्यां    विषयस्तु   दृढायते ।

स्पष्टरूपेण सा शैली गीतायां दृश्यते प्रभोः ॥

जिन बातोंको काममें लानेसे कार्य सिद्ध होता है, वे बातें अन्वयकहलाती हैं और जिन बातोंको काममें न लानेसे कार्य सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत बाधा लगती है, वे बातें व्यतिरेक’ कहलाती हैं । ऐसी अन्वय और व्यतिरेककी बातोंसे विषय स्पष्ट होता है । अतः गीतामें विषयको स्पष्ट करनेके लिये भगवान्‌ने अनेक अन्वय और व्यतिरेक वाक्य कहे हैं; जैसे–

(१) दूसरे अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा शरीरी (आत्मा)-को नित्य, सर्वगत आदि समझनेसे शोक नहीं हो सकता; और छब्बीसवें-सत्ताईसवें श्‍लोकोमें कहा कि अगर तू शरीरीको नित्य जन्मने-मरनेवाला मान ले, तो भी शोक नहीं हो सकता; क्योंकि जन्मनेवालेकी निश्‍चित मृत्यु होगी और मरनेवालेका निश्‍चित जन्म होगा ।

‒इसका तात्पर्य है कि किसी भी दृष्टिसे मनुष्यके लिये शोक करना उचित नहीं है ।

(२) दूसरे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने कहा कि अपने धर्मको देखकर भी तुझे भयभीत नहीं होना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है; और तैतीसवें श्‍लोकमें कहा कि अगर तू इस धर्ममय युद्धको नहीं करेगा तो तेरेको पाप लगेगा ।

‒इसका तात्पर्य है कि मनुष्यको किसी भी दृष्टिसे, किसी भी अवस्था, परिस्थितिमें, किसी भी संकटमें अपने कर्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपने कल्याणके लिये निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना चाहिये ।

(३) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने बताया कि रागपूर्वक विषयोंका चिन्तन करनेमात्रसे पतन हो जाता है और चौसठवें-पैंसठवें श्‍लोकोंमें बताया कि रागरहित होकर विषयोंका सेवन करनेसे स्थितप्रज्ञताकी अर्थात् परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है ।

‒इसका तात्पर्य है कि साधकको राग-द्वेष मिटाने चाहिये; क्योंकि ये दोनों ही साधकके शत्रु हैं (३ । ३४) ।

(४) दूसरे अध्यायके बासठवें-तिरसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि जो विषयोंका चिन्तन करता है, उसका पतन हो जाता है; और छठे अध्यायके चालीसवें श्‍लोकमें कहा कि कल्याणकारी काम करनेवालेका पतन नहीं होता ।

‒इसका तात्पर्य है कि जो संसारके सम्मुख हो जाता है, उसका पतन हो जाता है; और जो किसी भी तरहसे भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, पारमार्थिक मार्गमें लग जाता है, उसका पतन नहीं होता ।

(५) दूसरे अध्यायके चौंसठवें-पैंसठवें श्‍लोकोंमें भगवान्‌ने कहा कि जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है; और छाछठवें-सड़सठवें श्‍लोकोंमें कहा कि जिसका मन और इन्द्रियाँ वशमें नहीं होतीं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित नहीं होती । असंयमी होनेके कारण उसका मन उसकी बुद्धिको हर लेता है ।

‒इसका तात्पर्य है कि कर्मयोगीके लिये मन और इन्द्रियोंको वशमें रखना बहुत आवश्यक है ।