।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
     पौष शुक्ल पंचमी , वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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पूर्वं यथाक्रमं प्रोक्तं पश्‍चान्‍न स्यात्तथाक्रमम् ।

विपरीतक्रमस्यापि   तात्पर्यं  कथ्यतेऽधुना ॥

पहले अध्यायके छब्बीसमें श्‍लोकमें ‘पितॄनथ पितामहान् । आचार्यान्....’ कहकर सबसे पहले पिता तथा पितामहोंका और तीसरे नम्बरमें आचार्योंका नाम लिया गया है । फिर चौंतीसवें श्‍लोकमें ‘आचार्याः पितरः पुत्रः....’ कहकर सबसे पहले आचार्योंका और दूसरे नम्बरमें पिता आदिका नाम लिया गया है । यह विपरीत क्रम क्यों ?

एक तो मोह-ममताका सम्बन्ध होता है और एक धर्मका सम्बन्ध होता है । जहाँ मोह-ममताका सम्बन्ध होता है, वहाँ पिता आदि कुटुम्बी पहले याद आते हैं, पीछे आचार्य आदि याद आते हैं; और जहाँ धर्मका सम्बन्ध होता है, वहाँ आचार्य आदि पहले याद आते हैं, पीछे पिता आदि कुटुम्बी याद आते हैं । जब अर्जुनमें कौटुम्बिक मोह-ममताकी मुख्यता रहती है, तब उनकी दृष्टि सबसे पहले पिताकी तरफ जाती है; और जब उनमें धर्मकी मुख्यता रहती है, तब उनकी दृष्टि सबसे पहले आचार्यकी तरफ जाती है ।

(२) दूसरे अध्यायके चौथे श्‍लोकमें अर्जुन सबसे पहले पितामह भीष्मजीका और बादमें आचार्य द्रोणका नाम लेते हैं‒‘कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च’ । परन्तु ग्यारहवें अध्यायके चौंतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ सबसे पहले द्रोणका और बादमें भीष्मजीका नाम लेते है‒द्रोणं च भीष्मं च’ । यह विपरीत क्रम क्यों ?

भीष्मजीके साथ अर्जुनका कौटुम्बिक सम्बन्ध था । भीष्मजी बालब्रह्मचारी थे । वे शास्‍त्र और धर्मके तत्त्वको जाननेवाले तथा लोकमात्रके आदरणीय थे । महाभारतमें भगवान्‌ने भीष्मजीको शास्‍त्रज्ञानका सूर्य बताया है । इस प्रकार भीष्मजीके ज्यादा आदरणीय, पूजनीय होनेसे अर्जुन सबसे पहले उन्हींका नाम लेते हैं । आचार्य द्रोण अर्जुनके विद्यागुरु थे । अर्जुनके मनमें गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था । अतः भगवान्‌ सबसे पहले आचार्य द्रोणका नाम लेकर अर्जुनको यह बताना चाहते हैं कि जिन्होंने तेरेको शस्‍त्र-अस्‍त्रकी विद्या सिखायी है, उनको क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे मार भी दे, तो भी तेरेको पाप नहीं लगेगा । कारण कि मेरे द्वारा मारे हुए इन द्रोण आदिको मारनेसे तेरे द्वारा अपने प्राप्‍त कर्तव्यका पालन होगा ।

(३) कर्मयोग और भक्तियोगमें तो निर्ममो निरहंकारः (२ । ७१; १२ । १३) कहकर पहले ममताका और फिर अहंताका त्याग बताया; और ज्ञानयोगमें अहंकारं......विमुच्य निर्ममः’ (१८ । ५३) कहकर पहले अहंताका और फिर ममताका त्याग बताया । यह विपरीत क्रम क्यों ?

कर्मयोगमें पदार्थोंकी, कर्मफलकी कामनाका त्याग मुख्य है । परन्तु कामना छूटती है‒संसारसे निर्मम (ममतारहित) होनेसे । ममताका त्याग होनेपर अहंताका त्याग स्वतः हो जाता है; क्योंकि अहंताके साथ भी ममता रहती है । भक्तियोगमें भक्त पदार्थ, व्यक्ति आदि सबको भगवान्‌के अर्पण कर देता है, उनको भगवान्‌के ही मानता है; अतः उसकी किसी भी पदार्थ, व्यक्ति आदिमें ममता नहीं रहती । ममता न रहनेपर अहंता भी नहीं रहती । अतः कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले ममताका और फिर अहंताका त्याग बताया गया है ।

ज्ञानयोगमें सत्-असत्, नित्य-अनित्यके विवेककी प्रधानता है । मैं हूँ’‒इसमें मैं’-पन (अहंता) प्रकृतिका कार्य है (१३ । ५) और हूँ’ परमात्माका अंश है (१५ । ७) । मैं’-पन अपने स्वरूपमें आरोपित हैवास्तवमें है नहीं । इस तरह विवेकके द्वारा अपने स्वरूपमें स्थित होनेसे अहंताका त्याग हो जाता है । अहंताका त्याग होनेपर ममताका त्याग स्वतः हो जाता है । अतः ज्ञानयोगमें पहले अहंताका और फिर ममताका त्याग बताया गया है ।