।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       पौष शुक्ल षष्ठी , वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(४) तीसरे अध्यायके तीसवें श्‍लोकमें तथा पाँचवें अध्यायके दसवें श्‍लोकमें तो भगवान्‌ने पहले कर्म अर्पण करके फिर कर्म करनेकी आज्ञा दी; और नवें अध्यायके सत्ताईसवें श्‍लोकमें पहले कर्म करके फिर कर्म अर्पण करनेकी आज्ञा दी । यह विपरीत क्रम क्यों ?

भक्तियोगमें भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़नेके दो तरीके हैं‒(१) भक्त कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करते-करते स्वयं भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं, भगवान्‌के साथ अपनापन कर लेते हैं । भगवान्‌के अर्पित होनेपर फिर उनके द्वारा स्वतः ही भगवान्‌की प्रसन्‍नताके लिये कर्म होते हैं । (२) भक्त पहले स्वयं भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं । भगवान्‌के अर्पित होनेपर उनके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे स्वतः ही भगवान्‌के अर्पित होते रहते हैं ।

तात्पर्य है कि जिनकी कर्म करनेमें ज्यादा प्रवृत्ति होती है, वे कर्म करते-करते भगवान्‌के अर्पित होते हैं, और जिनकी भगवान्‌के परायण रहनेकी ज्यादा रुचि होती है, वे पहलेसे ही भगवान्‌के अर्पित हो जाते हैं ।

(५) दसवें अध्यायके सातवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘एतां विभूतिं योगं च’ पदोंमें विभूतिको पहले तथा योगको पीछे कहा । परन्तु दसवें अध्यायके ही अठारहवें श्‍लोकमें अर्जुनने ‘विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च’ पदोंमें योगको पहले तथा विभूतिको पीछे कहा । यह विपरीत क्रम क्यों ?

मनुष्य पहले भगवान्‌की विभूतियोंको, विशेषताओंको ही देखता है, फिर वह भगवान्‌में आकृष्ट होता है । भगवान्‌के योग (सामर्थ्य)-को तो वह केवल मान ही सकता है । अतः भगवान्‌ने सबसे पहले विभूतिको कहा है । परन्तु अर्जुन पहले भगवान्‌के योग (सामर्थ्य, प्रभाव)-को सुनकर ही प्रभावित हुए थे और उन्होंने परं ब्रह्म परं धाम.... (१० । १२) आदि पदोंसे भगवान्‌की स्तुति भी की थी । अतः वे सबसे पहले योगकी बात पूछते हैं ।

(६) तेरहवें अध्यायके उन्‍नीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने पहले प्रकृतिका और फिर पुरुषका नाम लिया‒प्रकृतिं पुरुषं चैव; और तेईसवें श्‍लोकमें पहले पुरुषका और फिर प्रकृतिका नाम लिया‒य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च । यह विपरीत क्रम क्यों ?

तेरहवें अध्यायके उन्‍नीसवेंसे इक्‍कीसवें श्‍लोकतक बन्धनका विषय है और तेईसवें श्‍लोकमें बोधका विषय है । बन्धनमें प्रकृतिके मुख्य होनेसे उन्‍नीसवें श्‍लोकमें पहले प्रकृतिको और फिर पुरुषको बताया है । बोधमें पुरुषके मुख्य होनेसे तेईसवें श्‍लोकमें पहले पुरुषको और फिर प्रकृतिको बताया है । तात्पर्य यह है कि प्रकृति-पुरुषका विवेक होनेपर पहले प्रकृतिका, बन्धनका ही ज्ञान होता है, जिससे प्रकृति (बन्धन)-की निवृत्ति हो जाती है; अतः प्रकृतिको पहले बताया । जन्म-मरणसे रहित होनेमें, बोध होनेमें पुरुषका ही ज्ञान मुख्य है; क्योंकि पुरुषका जन्म-मरण होता ही नहीं, उसमें जन्म-मरणका अत्यन्त अभाव है; अतः पुरुषको पहले बताया ।