।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      पौष शुक्ल सप्तमी , वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीतामें आये विपरीत क्रमका तात्पर्य



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(७) तेरहवें अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने न करोति न लिप्यते’ अर्थात् न करता है और न लिप्‍त होता है‒ऐसा कहकर पहले कर्तृत्वका और फिर भोक्तृत्वका निषेध किया । परन्तु इन दोनोंको समझानेके लिये बत्तीसवें-तैतीसवें श्‍लोकोंमें पहले भोक्तृत्वका और फिर कर्तृत्वका उदाहरण दिया । यह विपरीत क्रम क्यों ?

कर्तृत्वके बाद ही भोक्तृत्व आता है अर्थात् कर्म करनेके बाद ही उस कर्मके फलका भोग होता है‒इस दृष्टिसे भगवान्‌ने इकतीसवें श्‍लोकमें पहले कर्तृत्वका और फिर भोक्तृत्वका निषेध किया है । परन्तु मनुष्य जो कुछ भी करता है, पहले मनमें किसी फलकी इच्छा, उद्देश्य रखकर ही करता है । तात्पर्य है कि मनमें पहले लिप्‍तता (भोग और संग्रहकी इच्छा) अर्थात् भोक्तृत्व आता है और फिर कर्तृत्व आता है अर्थात् कर्म करने लगता है । अतः भगवान्‌ने पहले उदाहरणमें भोक्तृत्वका और दूसरे उदाहरणमें कर्तृत्वका निषेध किया है । कारण कि भोक्तृत्वका त्याग होनेपर कर्तृत्वका त्याग स्वतः हो जाता है अर्थात् फलेच्छाका सर्वथा त्याग होनेपर क्रिया करनेपर भी कर्तृत्व नहीं बनता ।

(८) चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘प्रमादालस्यनिद्राभिः’ पदमें प्रमादको सबसे पहले और निद्राको सबके अन्तमें दिया है; और अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थम्’ पदमें निद्राको सबसे पहले और प्रमादको सबके अन्तमें दिया है । यह विपरीत क्रम क्यों ?

चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें बाँधनेका प्रकरण है; अतः प्रमादको सबसे पहले दिया । कारण कि प्रमादसे जितना बन्धन होता है, उतना आलस्यसे नहीं होता और आलस्यसे जितना बन्धन होता है, उतना निद्रासे नहीं होता अर्थात् प्रमादसे ज्यादा बन्धन होता है, उससे कम आलस्यसे और उससे कम अति निद्रासे होता है । परन्तु अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें सुखका प्रकरण है; अतः निद्राको सबसे पहले दिया । कारण कि आवश्यक निद्रासे शरीरमें हलकापन आता है, वृत्तियाँ स्वच्छ होती हैं, जो लिखने-पढ़ने-सुनने आदिमें सहायक होती हैं । अतः आवश्यक निद्राका सुख इतना त्याज्य नहीं है । इससे ज्यादा त्याज्य आलस्यका सुख है और आलस्यसे ज्यादा त्याज्य प्रमादका सुख है । इस प्रकार चौदहवें अध्यायके आठवें श्‍लोकमें प्रमादको आरम्भमें देनेसे और अठारहवें अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें प्रमादको अन्तमें देनेसे सबसे अधिक बन्धनका कारण प्रमाद ही सिद्ध होता है । महाभारतमें भी प्रमादको मृत्यु बताया गया है‒प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि’ (उद्योग ४२ । ४) ।

(९) तेरहवाँ और चौदहवाँ‒ये दोनों अध्याय ज्ञानके हैं । तेरहवाँ अध्याय प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये और चौदहवाँ अध्याय प्रकृतिके कार्य गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये है । इन दोनों अध्यायोंके आरम्भके वर्णनको देखा जाय तो तेरहवें अध्यायके आरम्भमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तथा चौदहवें अध्यायके आरम्भमें महद्‍ब्रह्म (मूल प्रकृति) और परमात्माका वर्णन है; परन्तु वास्तवमें होना चाहिये था तेरहवें अध्यायके आरम्भमें मूल प्रकृति और परमात्माका वर्णन और फिर चौदहवें अध्यायके आरम्भमें होना चाहिये था उस प्रकृतिके क्षुद्र अंश क्षेत्रका और परमात्माके अंश क्षेत्रज्ञका वर्णन; परन्तु ऐसा क्रम न देनेका तात्पर्य है कि तत्त्वतः क्षेत्र और महद्‍ब्रह्म तथा क्षेत्रज्ञ और परमात्मा एक ही हैं, दो नहीं । अतः दोनोंका भेद मिटानेके लिये ही भगवान्‌ने ऐसा वर्णन किया है ।