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सब साधनोंका सार



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देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा   देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र  न  मुह्यति ॥

(गीता २ । १३)

बाल, युवा और वृद्ध‒ये तीन अवस्थाएँ स्थूलशरीरकी हैं और देहान्तरकी प्राप्ति सूक्ष्म तथा कारणशरीरकी है । देहान्तरकी प्राप्ति (मृत्यु) होनेपर स्थूलशरीर तो छूट जाता है, पर सूक्ष्म तथा कारणशरीर नहीं छूटते । जबतक मुक्ति न हो, तबतक सूक्ष्म तथा कारणशरीरसे सम्बन्ध बना रहता है । तात्पर्य है कि हमारा वास्तविक स्वरूप स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण‒इन तीनों शरीरोंसे तथा इनकी अवस्थाओंसे अतीत है । शरीर और उसकी अवस्थाएँ बदलती हैं, पर स्वरूप वही-का-वही रहता है । जन्मना और मरना हमारा धर्म नहीं है, प्रत्युत शरीरका धर्म है । हमारी आयु अनादि और अनन्त है, जिसके अन्तर्गत अनेक शरीर उत्पन्‍न होते और मरते रहते हैं । हमारी स्वतन्त्रता और असंगता स्वतःसिद्ध है । असंग (निर्लिप्त) होनेके कारण ही हम अनेक शरीरोंमें जानेपर भी वही रहते हैं, पर शरीरके साथ संग मान लेनेके कारण हम अनेक शरीरोंको धारण करते रहते हैं । माना हुआ संग तो टिकता नहीं, पर हम नया-नया संग पकड़ते रहते हैं । अगर नया संग न पकडें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।

बालिके मरनेपर भगवान्‌ श्रीराम तारासे कहते हैं‒

तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥

छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥

प्रगट सो तनु तव आगें सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥

उपजा ग्यान चरन तब लागी । लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥

(मानस, किष्किन्धाकाण्ड ११/२-३)

देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तुएँ बदलती हैं, व्यक्ति बदलते हैं, अवस्थाएँ बदलती हैं, परिस्थितियाँ बदलती हैं, घटनाएँ बदलती हैं, पर हम नहीं बदलते । हम निरन्तर वही रहते हैं । जाग्रत्‌, स्वप्‍न और सुषुप्ति‒ये तीनों अवस्थाएँ बदलती हैं, पर तीनों अवस्थाओंमें हम एक ही रहते हैं, तभी हमें तीनों अवस्थाओंका और उनके परिवर्तन (आरम्भ और अन्त)-का ज्ञान होता है । स्थूल दृष्टिसे विचार करें तो जैसे हम हरिद्वारसे रायवाला आये और फिर रायवालासे ऋषिकेश आये । अगर हरिद्वारमें या रायवालामें अथवा ऋषिकेशमें ही रहनेवाले होते तो हरिद्वारसे ऋषिकेश कैसे आते ? अतः हम न तो हरिद्वारमें रहनेवाले हुए, न रायवालामें रहनेवाले हुए और न ऋषिकेशमें ही रहनेवाले हुए, प्रत्युत तीनोंसे अलग हुए । हरिद्वार, रायवाला और ऋषिकेश तो अलग-अलग हुए, पर हम उन तीनोंको जाननेवाले एक ही रहे । ऐसे ही हम सभी अवस्थाओंमें एक ही रहते हैं । इसलिये हमें बदलनेवालेको न देखकर रहनेवाले (स्वरूप)-को ही देखना चाहिये‒

रहता रूप सही कर राखो बहता संग न बहीजे ।

जैसे स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒ये तीनों शरीर अपने नहीं हैं, ऐसे ही स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता तथा समाधि भी अपनी नहीं है । कारण कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । प्रत्येक चिन्तन आता और जाता है । स्थिरताके बाद चंचलता तथा समाधिके बाद व्युथान होता ही है । क्रिया, चिन्तन, स्थिरता और समाधि‒कोई भी अवस्था निरन्तर नहीं रहती । इन सबके आने-जानेका अनुभव तो हम सबको होता है, पर अपने आने-जानेका, परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । हमारा होनापन निरन्तर रहता है ।



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हमारा स्वरूप स्वतः-स्वाभाविक असंग है‒‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक ४ । ३ । १५), ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता १३ । २२) इसलिये शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानते हुए भी वास्तवमें हम शरीरसे लिप्त नहीं होते । शरीरका संग करते हुए भी वास्तवमें हम असंग रहते हैं । तभी भगवान्‌ कहते हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) तात्पर्य है कि बद्धावस्थामें भी स्वरूप वास्तवमें मुक्त ही है । बद्धपना माना हुआ है और मुक्तपना हमारा स्वतःसिद्ध स्वरूप है । जैसे अन्धकार और प्रकाश आपसमें नहीं मिल सकते, ऐसे ही शरीर (जड़, नाशवान्‌) और स्वरूप (चेतन, अविनाशी) आपसमें नहीं मिल सकते । कारण कि शरीर संसारका अंश है और हम स्वयं परमात्माके अंश हैं ।

एक ही दोष अथवा गुण स्थानभेदसे अनेक रूपोंसे प्रकट होता है । शरीरको अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । अपने स्वरूप (चिन्मय सत्तामात्र)-को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण सद्गुणोंकी उत्पत्ति होती है ।

अर्जुनने गीताके आरम्भमें भगवान्‌से अपने कल्याणका उपाय पूछा‒‘यच्छ्रेयः स्यान्‍निश्‍चितं ब्रूहि तन्मे’ (२ । ७) । इसके उत्तरमें भगवान्‌ने सर्वप्रथम शरीर और शरीरी (स्वरूप)-का ही वर्णन किया । इससे सिद्ध होता है कि जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’ । जबतक उसमें ‘मैं शरीर हूँ’‒यह भाव रहेगा, तबतक वह कितना ही उपदेश सुनता रहे अथवा सुनाता रहे और साधन भी करता रहे, उसका कल्याण नहीं होगा ।

मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । अतः ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह विवेक मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है । शरीरको ‘मैं’ मानना मनुष्यता नहीं है, प्रत्युत पशुता है । इसलिये श्रीशुकदेवजी महाराज परीक्षित्‌से कहते हैं‒

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।

न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥

(श्रीमद्भागवत १२ । ५ । २)

‘हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा । जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे‒यह बात नहीं है ।’

शरीर कभी एकरूप रहता ही नहीं और हमारा स्वरूप कभी अनेकरूप होता ही नहीं । शरीर जन्मसे पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी यह प्रतिक्षण मर रहा है । वास्तवमें गर्भमें आते ही शरीरके मरनेका क्रम शुरू हो जाता है । बाल्यावस्था मर जाय तो युवावस्था आ जाती है । युवावस्था मर जाय तो वृद्धावस्था आ जाती है । वृद्धावस्था मर जाय तो देहान्तर-अवस्था अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति हो जाती है ।



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जैसे भोजनालय भोजन करनेका स्थान होता है, ऐसे ही यह शरीर सुख-दुःख भोगनेका स्थान (भोगायतन) है । सुख-दुःख भोगनेवाला शरीर नहीं होता, प्रत्युत शरीरसे सम्बन्ध जोड़नेवाले हम स्वयं होते हैं । भोगनेका स्थान अलग होता है और भोगनेवाला अलग होता है । शरीर तो ऊपरका चोला है । हम कैसा ही कपड़ा पहनें, कपड़ा अलग होता है, हम अलग होते हैं । जैसे हम अनेक कपड़े बदलनेपर भी एक ही रहते हैं, अनेक नहीं हो जाते, ऐसे ही अनेक योनियोंमें अनेक शरीर धारण करनेपर भी हम स्वयं एक ही (वही-के-वही) रहते हैं । जैसे, पुराने कपड़े उतारनेपर हम मर नहीं जाते और नये कपड़े पहननेपर हम पैदा नहीं हो जाते, ऐसे ही पुराने शरीर छोड़नेपर हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करनेपर हम पैदा नहीं हो जाते[*] । तात्पर्य है कि शरीर जन्मता-मरता है, हम नहीं जन्मते-मरते । अगर हम मर जायँ तो फिर पाप-पुण्यका फल कौन भोगेगा ? अन्य योनियोंमें और स्वर्ग-नरकादि लोकोंमें कौन जायगा ? बन्धन किसका होगा ? मुक्त कौन होगा ? हमारा जीवन इस शरीरके अधीन नहीं है । हमारी आयु बहुत लम्बी‒अनादि और अनन्त है । महासर्ग और महाप्रलय हो जाय तो भी हम जन्मते-मरते नहीं, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हैं‒‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४/२) ।

हमारा और शरीरका स्वभाव बिलकुल अलग-अलग है । हम शरीरके साथ चिपके हुए, शरीरके साथ मिले हुए नहीं हैं । शरीर भी हमारे साथ चिपका हुआ, हमारे साथ मिला हुआ नहीं है । जैसे शरीर संसारमें रहता है, ऐसे हम शरीरमें नहीं रहते । शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । वास्तवमें हमें शरीरकी जरूरत ही नहीं है । शरीरके बिना भी हम स्वयं मौजसे रहते हैं । तात्पर्य है कि शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ भी नहीं बिगड़ता । अबतक हम असंख्य शरीर धारण कर-करके छोड़ चुके हैं, पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? हमारा क्या नुकसान हुआ ? हम तो ज्यों-के-त्यों ही रहे‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८/१९)

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार‒इन सबके अभावका अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । उदाहरणार्थ, सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-के समय हमें शरीरादिके अभावका अनुभव होता है । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्तिमें मैं नहीं था, मर गया था । कारण कि शरीरादिके अभावका अनुभव होनेपर भी हमें अपने अभावका अनुभव नहीं होता । तभी जगनेपर हम कहते हैं कि मैं बड़े सुखसे सोया कि कुछ भी पता नहीं था । सुषुप्तिमें भी हमारा होनापन ज्यों-का-त्यों था । इससे सिद्ध हुआ कि हमारा होनापन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकारके अधीन नहीं है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता ।



[*] वासांसि जीर्णानि यथा विहाय  नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।

   तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

(गीता २/२२)


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मैं शरीर नहीं हूँ

सर्वप्रथम साधकको यह बात अच्छी तरहसे समझ लेनी चाहिये कि मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, शरीररूप नहीं हूँ । हम कहते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । शरीरको देखें तो बचपनसे लेकर आजतक हमारा शरीर इतना बदल गया कि उसको पहचान भी नहीं सकते, फिर भी हम वही हैं‒यह हमारा अनुभव कहता है । बचपनमें मैं खेलता-कूदता था, बादमें मैं पढ़ता था, आज मैं नौकरी-धन्धा करता हूँ । सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ । कारण कि शरीर एक क्षण भी ज्यों-का-त्यों नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है । तात्पर्य यह हुआ कि जो बदलता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । जो नहीं बदलता, वही हमारा स्वरूप है ।

हमने अबतक असंख्य शरीर धारण किये, पर सब शरीर छूट गये, हम वही रहे । मृत्युकालमें भी शरीर तो यहीं छूट जायगा, पर अन्य योनियोंमें हम जायँगे, स्वर्ग-नरक आदि लोकोंमें हम जायँगे, मुक्ति हमारी होगी, भगवान्‌के धाममें हम जायँगे । तात्पर्य है कि हमारी सत्ता (होनापन) शरीरके अधीन नहीं है । शरीरके बढ़ने-घटनेपर, कमजोर-बलवान् होनेपर, बालक-बूढ़ा होनेपर अथवा रहने-न-रहनेपर हमारी सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता । जैसे हम किसी मकानमें रहते हैं तो हम मकान नहीं हो जाते । मकान अलग है, हम अलग हैं । मकान वहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । ऐसे ही शरीर यहीं रहता है, हम उसको छोड़कर चले जाते हैं । शरीर तो मिट्टी हो जाता है, पर हम मिट्टी नहीं होते । हमारा स्वरूप गीताने इस प्रकार बताया है‒

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि    नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो    न शोषयति मारुतः ॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः   स्थाणुरचलोऽयं   सनातनः ॥

(गीता २/२३-२४)

‘शस्‍त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्‍नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती । यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता । कारण कि यह नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है ।’

तात्पर्य है कि शरीरका विभाग ही अलग है और न बदलनेवाले शरीरी (स्वरूप)-का विभाग ही अलग है । हमारा स्वरूप किसी शरीरसे लिप्त नहीं है, इसलिये उसको गीतामें भगवान्‌ने सर्वव्यापी कहा है‒‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२/१७), ‘सर्वगतः’ (२/२४) । तात्पर्य है कि स्वरूप एक शरीरमें सीमित नहीं है, प्रत्युत सर्वव्यापी है ।

शरीर पृथ्वीपर ही (माँके पेटमें) बनता है, पृथ्वीपर घूमता-फिरता है और मरकर पृथ्वीमें ही लीन हो जाता है । इसकी तीन गतियाँ बतायी गयी हैं‒इसको जला देंगे तो भस्म बन जायगी, पृथ्वीमें गाड़ देंगे तो मिट्टी बन जायगी और जानवर खा लेंगे तो विष्ठा बन जायगी । इसलिये शरीर मुख्य नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप मुख्य है ।

यद्यपि होनापन (सत्ता) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि साधकसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है । ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ? साधकको विचार करना चाहिये कि आत्मा पहले थी या शरीर पहले था ? विचार करनेपर सिद्ध होता है कि आत्मा पहले है और शरीर पीछे है । भाव पहले है और आकृति पीछे है । इसलिये हमारी दृष्टि पहले भावरूप आत्मा (स्वरूप)-की तरफ जानी चाहिये, शरीरकी तरफ नहीं ।



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