।। श्रीहरिः ।।

     


  आजकी शुभ तिथि–
      माघ शुक्ल अष्टमी , वि.सं.-२०७९, रविवार

सब साधनोंका सार



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जैसे भोजनालय भोजन करनेका स्थान होता है, ऐसे ही यह शरीर सुख-दुःख भोगनेका स्थान (भोगायतन) है । सुख-दुःख भोगनेवाला शरीर नहीं होता, प्रत्युत शरीरसे सम्बन्ध जोड़नेवाले हम स्वयं होते हैं । भोगनेका स्थान अलग होता है और भोगनेवाला अलग होता है । शरीर तो ऊपरका चोला है । हम कैसा ही कपड़ा पहनें, कपड़ा अलग होता है, हम अलग होते हैं । जैसे हम अनेक कपड़े बदलनेपर भी एक ही रहते हैं, अनेक नहीं हो जाते, ऐसे ही अनेक योनियोंमें अनेक शरीर धारण करनेपर भी हम स्वयं एक ही (वही-के-वही) रहते हैं । जैसे, पुराने कपड़े उतारनेपर हम मर नहीं जाते और नये कपड़े पहननेपर हम पैदा नहीं हो जाते, ऐसे ही पुराने शरीर छोड़नेपर हम मर नहीं जाते और नया शरीर धारण करनेपर हम पैदा नहीं हो जाते[*] । तात्पर्य है कि शरीर जन्मता-मरता है, हम नहीं जन्मते-मरते । अगर हम मर जायँ तो फिर पाप-पुण्यका फल कौन भोगेगा ? अन्य योनियोंमें और स्वर्ग-नरकादि लोकोंमें कौन जायगा ? बन्धन किसका होगा ? मुक्त कौन होगा ? हमारा जीवन इस शरीरके अधीन नहीं है । हमारी आयु बहुत लम्बी‒अनादि और अनन्त है । महासर्ग और महाप्रलय हो जाय तो भी हम जन्मते-मरते नहीं, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हैं‒‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४/२) ।

हमारा और शरीरका स्वभाव बिलकुल अलग-अलग है । हम शरीरके साथ चिपके हुए, शरीरके साथ मिले हुए नहीं हैं । शरीर भी हमारे साथ चिपका हुआ, हमारे साथ मिला हुआ नहीं है । जैसे शरीर संसारमें रहता है, ऐसे हम शरीरमें नहीं रहते । शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । वास्तवमें हमें शरीरकी जरूरत ही नहीं है । शरीरके बिना भी हम स्वयं मौजसे रहते हैं । तात्पर्य है कि शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ भी नहीं बिगड़ता । अबतक हम असंख्य शरीर धारण कर-करके छोड़ चुके हैं, पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? हमारा क्या नुकसान हुआ ? हम तो ज्यों-के-त्यों ही रहे‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८/१९)

शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार‒इन सबके अभावका अनुभव तो सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । उदाहरणार्थ, सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-के समय हमें शरीरादिके अभावका अनुभव होता है । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि सुषुप्तिमें मैं नहीं था, मर गया था । कारण कि शरीरादिके अभावका अनुभव होनेपर भी हमें अपने अभावका अनुभव नहीं होता । तभी जगनेपर हम कहते हैं कि मैं बड़े सुखसे सोया कि कुछ भी पता नहीं था । सुषुप्तिमें भी हमारा होनापन ज्यों-का-त्यों था । इससे सिद्ध हुआ कि हमारा होनापन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकारके अधीन नहीं है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता ।



[*] वासांसि जीर्णानि यथा विहाय  नवानि गृह्णाति नरोपराणि ।

   तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

(गीता २/२२)