।। श्रीहरिः ।।

     


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      माघ शुक्ल नवमी , वि.सं.-२०७९, सोमवार

सब साधनोंका सार



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हमारा स्वरूप स्वतः-स्वाभाविक असंग है‒‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ (बृहदारण्यक ४ । ३ । १५), ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता १३ । २२) इसलिये शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानते हुए भी वास्तवमें हम शरीरसे लिप्त नहीं होते । शरीरका संग करते हुए भी वास्तवमें हम असंग रहते हैं । तभी भगवान्‌ कहते हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) तात्पर्य है कि बद्धावस्थामें भी स्वरूप वास्तवमें मुक्त ही है । बद्धपना माना हुआ है और मुक्तपना हमारा स्वतःसिद्ध स्वरूप है । जैसे अन्धकार और प्रकाश आपसमें नहीं मिल सकते, ऐसे ही शरीर (जड़, नाशवान्‌) और स्वरूप (चेतन, अविनाशी) आपसमें नहीं मिल सकते । कारण कि शरीर संसारका अंश है और हम स्वयं परमात्माके अंश हैं ।

एक ही दोष अथवा गुण स्थानभेदसे अनेक रूपोंसे प्रकट होता है । शरीरको अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । अपने स्वरूप (चिन्मय सत्तामात्र)-को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण सद्गुणोंकी उत्पत्ति होती है ।

अर्जुनने गीताके आरम्भमें भगवान्‌से अपने कल्याणका उपाय पूछा‒‘यच्छ्रेयः स्यान्‍निश्‍चितं ब्रूहि तन्मे’ (२ । ७) । इसके उत्तरमें भगवान्‌ने सर्वप्रथम शरीर और शरीरी (स्वरूप)-का ही वर्णन किया । इससे सिद्ध होता है कि जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ’ । जबतक उसमें ‘मैं शरीर हूँ’‒यह भाव रहेगा, तबतक वह कितना ही उपदेश सुनता रहे अथवा सुनाता रहे और साधन भी करता रहे, उसका कल्याण नहीं होगा ।

मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । अतः ‘मैं शरीर नहीं हूँ’‒यह विवेक मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है । शरीरको ‘मैं’ मानना मनुष्यता नहीं है, प्रत्युत पशुता है । इसलिये श्रीशुकदेवजी महाराज परीक्षित्‌से कहते हैं‒

त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि ।

न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि ॥

(श्रीमद्भागवत १२ । ५ । २)

‘हे राजन् ! अब तुम यह पशुबुद्धि छोड़ दो कि मैं मर जाऊँगा । जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जायगा, ऐसे तुम पहले नहीं थे, पीछे पैदा हुए और फिर मर जाओगे‒यह बात नहीं है ।’

शरीर कभी एकरूप रहता ही नहीं और हमारा स्वरूप कभी अनेकरूप होता ही नहीं । शरीर जन्मसे पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी यह प्रतिक्षण मर रहा है । वास्तवमें गर्भमें आते ही शरीरके मरनेका क्रम शुरू हो जाता है । बाल्यावस्था मर जाय तो युवावस्था आ जाती है । युवावस्था मर जाय तो वृद्धावस्था आ जाती है । वृद्धावस्था मर जाय तो देहान्तर-अवस्था अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति हो जाती है ।