।। श्रीहरिः ।।



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फाल्गुन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

एक नयी बात



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यहाँ एक शंका हो सकती है कि चेतनके बिना केवल जड़में पाप-पुण्य आदि होना कैसे सम्भव है ? इसका समाधान है कि जैसे एक गाड़ीकी टक्‍करसे कोई मनुष्य मर जाय तो उसका दण्ड गाड़ीको न होकर उसके चालकको होता है । दुर्घटनारूप क्रिया तो गाड़ीके द्वारा ही हुई, पर उसका दण्ड उसको भोगना पड़ता है, जिसने उस गाड़ीसे अपना सम्बन्ध जोड़ा अर्थात्‌ जो उस गाड़ीका चालक (कर्ता) बना । जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है । ऐसे ही पाप-पुण्यरूप क्रिया तो जड़ (शरीर)-के द्वारा ही होती है, पर उसका फल जड़के साथ अपना सम्बन्ध माननेवाले कर्ता (चेतन)-को ही भोगना पड़ता है । तात्पर्य है कि सभी विकार जड़-विभागमें ही होते हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका परिणाम चेतनपर होता है । जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया । स्वयं (चेतन)-में ज्वर नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं । जड़-विभागके साथ अर्थात्‌ अपरा प्रकृतिके अंश अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेके कारण ही अज्ञानी मनुष्य अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है‒अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७), ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३ । २१) । तात्पर्य है कि स्वयं (चेतन स्वरूप)-में कर्तापन तथा भोक्तापन बनता नहीं है, प्रत्युत वह अविवेकपूर्वक अपनेको कर्ता-भोक्ता मान लेता है । सुखलोलुपता अथवा फलेच्छाके कारण वह अपनेको कर्ता मानता है और अपनेको कर्ता माननेके कारण उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है । कारण कि अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है ।

स्वयंमें लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व नहीं है‒‘नैव किंचित्करोति सः’ (गीता ४ । २०), ‘नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५ । ८) । आजतक चौरासी लाख योनियोंमें जो भी क्रियाएँ की गयी हैं, उनमेंसे कोई भी क्रिया स्वयंतक नहीं पहुँची; क्योंकि स्वयंका विभाग ही अलग है और क्रियाका विभाग ही अलग है । जबतक अपने लिये ‘करना’ है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना अपने लिये ‘करना’ सिद्ध नहीं होता । इसलिये अपने उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है । अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरणका मूल है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको महत्त्व दे ।

शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ है और स्वयंका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । शरीर प्रकृतिका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः स्वयं कभी शरीरस्थ (शरीरमें स्थित) हो सकता ही नहीं । परन्तु अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको शरीरस्थ मान लेता है । इसमें एक मार्मिक बात है कि अपनेको शरीरस्थ मान लेनेपर भी वास्तवमें स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं बनता‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । इससे सिद्ध होता है कि स्वयंका कर्ता-भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक है । अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं । गीतामें भगवान्‌ने आत्मामें भोक्‍तृत्वके अभावको आकाशका दृष्टान्त देकर और कर्तृत्वके अभावको सूर्यका दृष्टान्त देकर समझाया है‒

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे  तथात्मा नोपलिप्यते ॥

(गीता १३ । ३२)

‘जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्‍त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्‍त नहीं होता ।’

चिन्मय सत्ता शरीरस्थ अथवा प्रकृतिस्थ हो ही नहीं सकती । वह आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है‒‘नित्यः सर्वगतः’ (गीता २ । २४) । वह सम्पूर्ण शरीरोंके बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है ।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्‍नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्‍नं   प्रकाशयति भारत ॥

(गीता १३ । ३३)

‘हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ।’

सूर्यके प्रकाशमें सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं । सूर्यके प्रकाशमें कोई वेदका पाठ करता है, कोई शिकार करता है । परन्तु सूर्यको उन क्रियाओंका न तो पुण्य लगता है, न पाप । कारण कि सूर्य उन क्रियाओंका न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है । इसी तरह आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरोंको सत्ता-स्फूर्ति देता है, पर वास्तवमें वह न तो कुछ करता है और न लिप्‍त ही होता है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒

यस्य नाहंकृतो भावो    बुद्धिर्यस्य  न लिप्यते ।

हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्‍न हन्ति न निबध्यते ॥

(गीता १८ । १७)

‘जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्‍त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’

जैसे गंगाजीमें कोई डूबकर मर जाता है तो गंगाजीको पाप नहीं लगता और कोई स्‍नान आदि करता है तो गंगाजीको पुण्य नहीं लगता । कारण कि गंगाजीमें अहंकृतभाव (कर्तृत्व) और बुद्धिकी लिप्‍तता (भोक्‍तृत्व) नहीं है ।

कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वरूपमें नहीं । इसलिये अपने स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा अनुभव करता है‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५ । ८) । खाने-पीने, सोने-जागने, नौकरी-धन्धा करने आदि सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं । स्वरूपमें कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह शास्‍त्रविहित लौकिक तथा पारमार्थिक क्रियाओंका बाहरसे त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात्‌ उनको अपने द्वारा होनेवाली और अपने लिये न माने । क्रियाका महत्त्व वास्तवमें जड़ताका ही महत्त्व है । क्रियाकी मुख्यता होनेपर वर्षोंतक साधन करनेपर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखता । इसलिये साधकके अन्तःकरणमें क्रियाका अर्थात् जड़-विभागका महत्त्व न होकर चेतन-विभागका ही महत्त्व होना चाहिये । साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरीरके द्वारा ही होती है । साधकका स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्रमें कोई क्रिया नहीं होती । क्रिया और पदार्थ संसारका स्वरूप है ।

कर्तृत्व-भोक्‍तृत्व अपनेमें नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानके कारण अपनेमें माने हुए हैं । अपनेमें माननेपर भी वास्तवमें हम कर्तृत्व-भोक्‍तृत्वसे रहित ही हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ । तात्पर्य है कि शरीरमें अपनी स्थिति माननेपर भी वास्तवमें हम शरीरसे असंग हैं । अपनेमें बन्धनकी मान्यता करनेपर भी वास्तवमें हम मुक्त ही हैं । इस सत्यको स्वीकार करना साधकके लिये बहुत ही आवश्यक है ।

नारायण !   नारायण !   नारायण ! नारायण   !



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।। श्रीहरिः ।।



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फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७९, सोमवार

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जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्‍न करनेवाला है, उसको ‘कारक’ कहते हैं । कारकोंमें कर्ता मुख्य होता है; क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ताके ही अधीन होती हैं । अन्य कारक तो क्रियाकी सिद्धिमें सहायकमात्र होते हैं, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है । कर्तामें चेतनका आभास होता है; परन्तु वास्तवमें चेतन कर्ता नहीं होता । इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्‌ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव‒ये पाँच हेतु बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा (चेतन)-को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है‒

तत्रैवं सति  कर्तारमात्मानं  केवलं  तु यः ।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्‍न स पश्यति दुर्मतिः ॥

(१८ । १६)

‘ऐसे पाँच हेतुओंके होनेपर भी जो कर्मोंके विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता देखता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला ठीक नहीं देखता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात्‌ उसने विवेकको महत्त्व नहीं दिया है ।’

गीतामें भगवान्‌ने कहीं प्रकृतिको, कहीं गुणोंको और कहीं इन्द्रियोंको कर्ता बताया है । प्रकृतिका कार्य गुण हैं और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं । अतः वास्तवमें कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है । हमारे चेतन स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

(१३ । २९)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा   कर्ताहमिति   मन्यते ॥

(३ । २७)

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

(३ । २८)

नान्यं गुणेभ्यः  कर्तारं   यदा  द्रष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्‍च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

(१४ । १९)

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥

(५ । ९)

भगवान्‌ने अपनेमें भी कर्तृत्व-भोक्‍तृत्वका निषेध किया है; जैसे‒

चातुर्वर्ण्यं    मया   सृष्टं    गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां    विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

इति मां योऽभिजानाति   कर्मभिर्न स बध्यते ॥

(गीता ४ । १३-१४)

‘मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्‍वरको तू अकर्ता जान । कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्‍त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।’

न च मां तानि कर्माणि निबध्‍नन्ति धनञ्जय ।

उदासीनवदासीनमसक्तं       तेषु     कर्मसु ॥

(गीता ९ । ९)

‘हे धनजंय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते ।’

तात्पर्य है कि सृष्टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी भगवान्‌ उन कर्मोंसे लिप्‍त नहीं होते अर्थात्‌ उनमें कर्तापन और भोक्‍तापन नहीं आता । भगवान्‌का ही अंश होनेसे जीवमें भी कर्तापन और भोक्‍तापन नहीं आता‒

अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः   ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

(गीता १३ । ३१)

‘हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादी होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्‍त होता है ।’

दो विभाग हैं‒जड़ और चेतन । जड़-विभाग नाशवान्‌ है और चेतन-विभाग अविनाशी है । गीतामें भगवान्‌ने जड़-विभागको प्रकृति, क्षेत्र, क्षर, आदि नामोंसे कहा है और चेतन-विभागको पुरुष, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि नामोंसे कहा है । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । जड़-विभाग असत्‌ है, जिसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है और चेतन-विभाग सत्‌ है, जिसकी सत्ता विद्यमान है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथा उससे होनेवाली स्थिरता और समाधि‒ये सभी जड़-विभागमें ही हैं । कामना, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं । सम्पूर्ण पाप-ताप भी जड़-विभागमें ही हैं । पराश्रय तथा परिश्रम‒ये दोनों जड़-विभागमें हैं और भगवदाश्रय तथा विश्राम (अपने लिये कुछ न करना)‒ये दोनों चेतन-विभागमें हैं । जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है‒‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’ (गीता १३ । ३४) । इस ज्ञानरूपी अग्‍निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं‒

अपि चेदसि पापेभ्यः   सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव    वृजिनं   सन्तरिष्यसि ॥

यथैधांसि  समिद्धोऽग्‍निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्‍निः सर्वकर्माणि  भस्मसात्कुरुते तथा ॥

(गीता ४ । ३६-३७)

‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा । हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्‍नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्‍नि सम्पूर्ण (संचित, प्रारब्ध[*] तथा क्रियमाण) कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है ।’

तात्पर्य है कि चेतन-विभागमें अपनी स्वतः-स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करते ही साधक सम्पूर्ण विकारों तथा पापोंसे छूट जाता है और जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है । कारण कि जड़-विभागके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही जन्म-मरणका मूल कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३ । २१)



[*] ज्ञान होनेपर प्रारब्ध अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो पैदा कर सकता है, पर सुखी-दुःखी नहीं कर सकता ।



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।। श्रीहरिः ।।

 


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भगवान्‌ आज ही मिल सकते हैं



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आपमें परमात्मप्राप्‍तिकी जोरदार इच्छा है ही नहीं । आप सत्संग करते हो तो लाभ जरूर होगा । जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना लाभ होगाइसमें सन्देह नहीं है । परन्तु परमात्माकी प्राप्‍ति जल्दी नहीं होगी । कई जन्म लग जायँगे, तब उनकी प्राप्‍ति होगी । अगर उनकी प्राप्‍तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्‌को आना ही पड़ेगा । वे तो हरदम मिलनेके लिये तैयार हैं ! जो उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे ? इसलिये ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहते हुए सच्‍चे हृदयसे उनको पुकारो ।

सच्‍चे हृदयसे   प्रार्थना,    जब भक्त सच्‍चा गाय है ।

तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

भक्त सच्‍चे हृदयसे प्रार्थना करता है तो भगवान्‌को आना ही पड़ता है । किसीकी ताकत नहीं जो भगवान्‌को रोक दे । जिसके भीतर एक भगवान्‌के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है, न जीनेकी इच्छा है, न मरनेकी इच्छा है, न मानकी इच्छा है, न सत्कारकी इच्छा है, न आदरकी इच्छा है, न रुपयोंकी इच्छा है, न कुटुम्बकी इच्छा है, उसको भगवान्‌ नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा ? आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं, पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं, इस बातको भगवान्‌ नहीं देखते । वे तो केवल आपके हृदयका भाव देखते हैं

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।

करत सुरति  सय  बार हिए की ॥

(मानस, बाल २९ । ३)

वे हृदयकी बातको याद रखते हैं, पहले किये पापोंको याद रखते ही नहीं ! भगवान्‌का अन्तःकरण ऐसा है, जिसमें आपके पाप छपते ही नहीं ! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है । भगवान्‌ कैसे मिलें ? कैसे मिलें ? ऐसी अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान्‌ जरूर मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । आप और कोई इच्छा न करके, केवल भगवान्‌की इच्छा करके देखो कि वे मिलते हैं कि नहीं मिलते हैं ! आप करके देखो तो मेरी भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं ! मैं तो गीताके बलपर कहता हूँ । गीतामें भगवान्‌ने कहा हैये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४ । ११) जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ । हमें भगवान्‌के बिना चैन नहीं पड़ेगा तो भगवान्‌को भी हमारे बिना चैन नहीं पड़ेगा । हम भगवान्‌के बिना रोते हैं तो भगवान्‌ भी हमारे बिना रोने लग जायँगे ! भगवान्‌के समान सुलभ कोई है ही नहीं ! भगवान्‌ कहते हैं

अनन्यचेताः सततं  यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥

(गीता ८ । १४)

हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्‍त हो जाता हूँ ।

भगवान्‌ने अपनेको तो सुलभ कहा है, पर महात्माको दुर्लभ कहा है

बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(गीता ७ । १९)

बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें सब कुछ परमात्मा ही हैंइस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।

हरि दुरलभ नहिं जगत में,   हरिजन दुरलभ होय ।

हरि हेर्‌याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥

भगवान्‌के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते, पर भगवान्‌ सब जगह मिलते हैं । भक्त जहाँ भी निश्‍चय कर लेता है, भगवान्‌ वहीं प्रकट हो जाते हैं

आदि  अन्त   जन  अनँत के,  सारे   कारज  सोय ।

जेहि जिव ऊर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय ॥

प्रह्लादजीके लिये भगवान्‌ खम्भेमेंसे प्रकट हो गये

प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े ॥

(कवितावली ७ । १२७)

भगवान्‌ सबके परम सुहृद हैं । वे पापी, दुराचारीको जल्दी मिलते हैं । माँ कमजोर बालकको जल्दी मिलती है । एक माँके दो बेटे हैं । एक बेटा तो समयपर भोजन कर लेता है, फिर कुछ नहीं लेता और दूसरा बेटा दिनभर खाता रहता है । दोनों बेटे भोजनके लिये बैठ जायँ तो माँ पहले उसको रोटी देगी जो समयपर भोजन करता है; क्योंकि वह भूखा उठ जायगा तो शामतक खायेगा नहीं । दूसरे बेटेको माँ कहती है कि तू ठहर जा; क्योंकि वह तो बकरीकी तरह दिनभर चरता रहता है । दोनों एक ही माँके बेटे हैं, फिर भी माँ पक्षपात करती है । इसी तरह जो एक भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान्‌ सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवान्‌को अधिक प्रिय है । वह एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीको अपना नहीं मानता । वह भगवान्‌के लिये दुःखी होता है तो भगवान्‌से उसका दुःख सहा नहीं जाता ।

कोई चार-पाँच वर्षका बालक हो और उसका माँसे झगड़ा हो आय तो माँ उसके सामने ढीली पड़ जाती है । संसारकी लड़ाईमें तो जिसमें अधिक बल होता है, वह जीत जाता है, पर प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें प्रेम अधिक होता है, वह हार जाता है । बेटा माँसे कहता है कि मैं तेरी गोदीमें नहीं आऊँगा, पर माँ उसकी गरज करती है कि आ जा, आ जा बेटा ! माँमें यह स्‍नेह भगवान्‌से ही तो आया है । भगवान्‌ भी भक्तकी गरज करते हैं । भगवान्‌को जितनी गरज है, उतनी गरज दुनियाको नहीं है । माँको जितनी गरज होती है, उतनी बालकको नहीं होती । बालक तो माँका दूध पीते समय दाँतोंसे काट लेता है, पर माँ क्रोध नहीं करती । अगर वह क्रोध करे तो बालक जी सकता है क्या ? माँ तो बालकपर कृपा ही करती है । ऐसे ही भगवान्‌ हमारी अनन्त जन्मोंकी माता है । वे भक्तकी उपेक्षा नहीं कर सकते । भक्तको वे अपना मुकुटमणि मानते हैंमैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणिभक्तोंका काम करनेके लिये भगवान्‌ हरदम तैयार रहते हैं । जैसे बच्‍चा माँके बिना नहीं रह सकता और माँ बच्‍चेके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भक्त भगवान्‌के बिना नहीं रह सकता और भगवान्‌ भक्तके बिना नहीं रह सकते ।

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !



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