ये गुण किसी साधनसे नहीं होते,
आपकी कृपासे ही होते हैं । मैं जो काम,
क्रोध और लोभमें फँसा हूँ,
इसमें कारण है कि आपने कृपा नहीं की । मेरा दोष नहीं है इसमें
। ‘तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥’
आपकी कृपासे कोई-कोई पाता है । इसलिये यह हमारेमें अवगुण नहीं,
यह अवगुण आपका ही है । विषयी आदमी भोगोंमें फँसे रहते हैं और
कह देते हैं‒भगवान्की माया है । भगवान्की मायाने ऐसा कर दिया । इस कारण हम फँस गये,
क्या करें ? हम तो दूधके धोये शुद्ध हैं । ये जो विषयी-पामर जीव संसारमें
रात-दिन भोगोंमें लगे रहते हैं, वे रामजीके ऊपर ही दोषारोपण करते हैं कि हम क्या करें ?
बताओ जीव बेचारे क्या करें ?
यह तो भगवान् कृपा करे,
तब छूटे ।
ऐसे वचन विभीषण या निषादराज गुहके प्रसंगमें कहीं नहीं आयेंगे,
क्योंकि ऐसी बात साधक और सिद्ध भक्त नहीं कहते । विषयोंमें डूबे
हुए पामर जीव ही ऐसा कहते हैं । निषादराज गुहको तो भगवान्से मिलनेपर बड़ा दुःख होता
है वह कहता है‒
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु
कीन्ह ।
जेहि रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥
(मानस,
अयोध्याकाण्ड, दोहा ९१)
कैकयराजकी पुत्री मंदमति कैकेयीने बड़ी ही कुटिलता की है,
जो रघुनन्दन श्रीरामजीको और जानकीजीको सुखके अवसरपर दुःख दिया
है, वनवास दे दिया, इस बातसे बड़ा दुःख हुआ । लक्ष्मणजीने वहाँ समझाया कि यह दुःख-सुख
कुछ नहीं है ऐसे ‘लक्ष्मण-गीता’ का वहाँ उपदेश हुआ है । रामजीसे जब निषादराज मिला तो उसने कहा‒‘महाराज
! आप हमारे घरपर पधारो । यह आपका ही घर है,
बाल-बच्चे सब आपके ही हैं । आप कृपा करो,
घरपर पधारों ।’ तब भगवान्ने कहा‒‘भाई ! इस समय हम गाँवमें किसीके
घरपर नहीं जा सकते; क्योंकि हमारी माता कैकेयीने वनवास दे दिया है‒‘तापस
बेष बिसेषि उदासी चौदह बरिस रामु बनबासी ॥’ चौदह वर्षका वनवास है, इस कारण हम गाँवमें नहीं जाते हैं । जब
विभीषण भगवान्के शरण आया तो कहने लगा‒
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
(मानस,
सुन्दरकाण्ड, दोहा ४५)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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