(गत ब्लॉगसे आगेका)
तात्पर्य है कि सृष्टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण
कर्मोंको करते हुए भी भगवान् उन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते अर्थात् उनमें कर्तापन
और भोक्तापन नहीं आता । भगवान्का ही अंश होनेसे जीवमें भी कर्तापन और भोक्तापन
नहीं आता‒
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
(गीता १३/३१)
‘हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादी
होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीरमें रहता हुआ
भी न करता है और न लिप्त होता है ।’
दो विभाग हैं ‒ जड़ और चेतन । जड़-विभाग नाशवान् है और चेतन-विभाग अविनाशी है ।
गीतामें भगवान्ने जड़-विभागको प्रकृति, क्षेत्र, क्षर, आदि नामोंसे कहा है और
चेतन-विभागको पुरुष, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि नामोंसे कहा है । ये दोनों विभाग
अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । जड़-विभाग असत् है, जिसकी
सत्ता ही विद्यमान नहीं है और चेतन-विभाग सत् है, जिसकी सत्ता विद्यमान है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें
कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली
क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथा उससे होनेवाली
स्थिरता और समाधि‒ये सभी जड़-विभागमें ही हैं । कामना,
ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं । सम्पूर्ण पाप-ताप भी
जड़-विभागमें है । पराश्रय तथा परिश्रम‒ये दोनों जड़-विभागमें हैं और भगवदाश्रय तथा
विश्राम (अपने लिये कुछ न करना)‒ये दोनों चेतन-विभागमें हैं । जड़ और चेतनके
विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है‒‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं
ज्ञानचक्षुषा’ (गीता १३/३४) । इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा
नष्ट हो जाते हैं‒
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं
सन्तरिष्यसि ॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन
।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
(गीता
४/३६-३७)
‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी
नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा । हे अर्जुन !
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि
सम्पूर्ण (संचित, प्रारब्ध[1] तथा क्रियमाण) कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती
है ।’
तात्पर्य है कि चेतन-विभागमें अपनी
स्वतःस्वाभाविक स्थितिका अनुभव करते ही साधक सम्पूर्ण विकारों तथा पापोंसे छूट
जाता है और जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है । कारण कि जड़-विभागके
साथ अपना सम्बन्ध मानना ही जन्म-मरणका मूल कारण है‒ ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३/२१) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
[1] ज्ञान होनेपर प्रारब्ध अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो पैदा
कर सकता है, पर सुखी-दुःखी नहीं कर सकता ।
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