।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७५, सोमवार
                    एकादशी-व्रत कल है 
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताअभेद और अभिन्नता क्या है ?

स्वामीजीमैं बता तो दूँगा, पर यह बात जल्दी समझमें नहीं आयेगी ! ज्ञानमार्गमें अभेद होता है और भक्तिमार्गमें अभिन्नता होती है । जीव तथा ब्रह्मकी एकता ‘अभेद’ है और अपने-आपको परमात्मामें लीन कर देना ‘अभिन्नता’ है । मेरी जगह भगवान् ही आ गये, मैं हूँ ही नहींयह अभिन्नता है । वासुदेवः सर्वम् केवल भगवान् ही हैंयह अभिन्नता है, जो गीताका सिद्धान्त है । अभेद तत्त्वाद्वैत है और अभिन्नता प्रेमाद्वैत है ।

गीतामें ज्ञानमार्गको लौकिक कहा है‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा’ (गीता ३ । ३), ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके’ (गीता १५ । १६), और भक्तिमार्गको अलौकिक बताया है‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता १५ । १७) । लौकिक-अलौकिकका यह भेद गीताकी किसी भी टीकामें देखनेमें नहीं आया है !

श्रोताअभेद और अभिन्नताका अर्थ तो वास्तवमें एक ही निकलता है ?

स्वामीजीमैंने पहले ही निवेदन कर दिया था कि आप इसको समझ नहीं सकोगे ! अभेद हैजीव-ब्रह्मकी एकता । अभिन्नता जीव-ब्रह्मकी एकतासे आगे है । अद्वैत सिद्धान्तमें जीव-ब्रह्मकी एकता बतायी है, पर जीवपना न रहकर केवल परमात्मा ही रहेयह नहीं बताया है । जीवपना सर्वथा मिट जाय, केवल परमात्मा ही रह जायँयह अभिन्नता है । इस अभिन्नताको गीताने वासुदेवः सर्वम् कहा है ।

अभेदमें सूक्ष्म अहम्‌ रहता है, पर अभिन्नतामें अहम्‌ सर्वथा नहीं रहता । अभेदमें रहनेवाला सूक्ष्म अहम्‌ मुक्तिमें बाधक नहीं होता अर्थात् जन्म-मरण देनेवाला नहीं होता, प्रत्युत मतभेद करनेवाला होता है । सूक्ष्म अहम्के कारण ही अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत और अचित्त्वभेदाभेदये पाँच मतभेद हुए हैं । परन्तु वासुदेवः सर्वम् में ये मतभेद रहते ही नहीं ।

अद्वैत-सिद्धान्तमें जीव और ब्रह्मको ‘एक’ नहीं कहा है, प्रत्युत ‘अद्वैत’ कहकर द्वैतका निषेध किया है । प्रायः लोगोंमें यह बात जँची हुई है कि ज्ञानमें अद्वैत और भक्तिमें द्वैत रहता है, पर भक्तिमें अभिन्नता हो जाती हैयह बात जानते ही नहीं !


कई वर्ष पहले मैंने कहा था कि कुछ वर्ष और जी गया तो परमात्मप्राप्तिकी बात और सुगमतासे बता दूँगा । वे बातें अब बता रहा हूँ ! आप कम-से-कम इतनी बात मान लो कि मैं भगवान्‌का हूँ । अपने माँ-बापको मान ही सकते हैं, जान सकते ही नहीं । वीर्यका बिन्दु अपने बापको कैसे जानेगा ? ईश्वरका अंश ईश्वरको कैसे जानेगा ? जब अपने माँ-बापको भी आप नहीं जानते, तो फिर दुनियाके माँ-बापको कैसे जानोगे ? जैसे आप मानते हो कि मैं माँका हूँ, ऐसे ही मान लो कि मैं भगवान्‌का हूँ ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे