।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



परमात्मतत्त्वका अनुभव स्वयंको होता है, करणको नहीं । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये हम करणकी जितनी आवश्यकता मानेंगे, उतनी ही परमात्मतत्त्वके अनुभवमें देरी लगेगी । वास्तवमें हमें नित्यप्राप्त तत्त्वकी ही प्राप्ति करनी हे और नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति करनी है, नया कुछ नहीं करना है । अतः इसमें किसी करण अर्थात् कियाकी अपेक्षा नहीं है । इसलिये गीता कहती है‒

१. आत्मन्येवात्मना तुष्टः (२ । ५५)

‘अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है ।’

२. यस्त्वात्मरतिरेव  स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
             आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
                                                   (३ । १७)

जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला तथा अपने-आपमें ही तृप्त एवं अपने-आपमें ही सन्तुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।’

३. उद्धरेदात्मनात्मानम् (६ । ५)

‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे ।’

४. यत्र चैवात्मनात्मान पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।
                                                             (६ । २०)

जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है ।’

५. पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना  (१३ । २४)

अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं ।’

६. पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् (१५ । ११)

अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं ।’

भगवान्‌के लिये भी अर्जुनने कहा है‒

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
                                                       (१० । १५)
हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं ।’

उपनिषद्‌में भी आया है‒

१. आत्मन्येवात्मानं पश्यति (बृहदा ४ । ४ । २३)

 आत्मामें ही आत्माको देखता है ।’

२. ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदा ४ । ४ । ६)

‘ब्रह्म ही होकर ब्रह्मको प्राप्त होता है ।’

३. आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ।
                                                        (केन २ । ४)


अमृतत्व अपने-आपसे ही प्राप्त होता है । विद्यासे तो अज्ञानान्धकारको निवृत्त करनेका सामर्थ्य मिलता है ।’