ईश्वर मायका अधिपति
(मालिक) है—यह गीताने स्पष्टरूपसे और बार-बार कहा है, जैसे—ईश्वर
जीवोंके मालिक होते हुए भी अवतार लेता है (४/६);
ईश्वर गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वर्णोंकी रचना करता है (४/१३); जो मनुष्य सकामभावसे देवताओंकी उपासना करते हैं,
उनको फल देनेकी व्यवस्था ईश्वर ही करता है (७/२२);
महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव प्रकृतिमें लीन होते हैं और फिर महासर्गके आदिमें ईश्वर
उनकी रचना करता है (९/७-८); सब योनियोंके जितने
शरीर पैदा होते हैं, उनमें प्रकृति माँकी तरह है और ईश्वर पिताकी तरह है (१४/३-४); ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है
और जीवोंको उनके स्वभावके अनुसार घुमाता है (१८/६१)
। जैसे सुनार औजरोंसे गहने बनाता है तो वह औजरोंके अधीन नहीं होता; क्योंकि वह
गहनोंके लिये ही औजरोंको काममें लेता है । ऐसे ही ईश्वर संसारकी रचना करनेके लिये
ही प्रकृतिको स्वीकार करता है ।
जो खुद ही
बन्धनमें पड़ा हुआ हो, वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता ।
जीव खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ है; अतः वह दूसरोंको बन्धनसे कैसे मुक्त कर सकता है ? परन्तु ईश्वर बन्धनसे रहित है; अतः वह बन्धनमें पड़े हुए
जीवोंको (यदि वे चाहें तो) बन्धनसे, पापोंसे मुक्त कर सकता है (१८/६६) । मायके बन्धनमें पड़े
हुए जीवकी उपासना करनेसे उपासकको बन्धनसे मुक्ति नहीं मिलती, पर ईश्वरकी उपासना
करनेसे जीव बन्धनसे मुक्त हो जाता है । तात्पर्य है कि ईश्वर जीव नहीं हो सकता और
जीव ईश्वर नहीं हो सकता । हाँ, जीव अनन्यभक्तिके द्वारा ईश्वरसे अभिन्न हो सकता
है, ईश्वरमें मिल सकता है, पर ईश्वर नहीं हो सकता ।
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