।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं. २०७५ गुरुवार
हम ईश्वरको क्यों मानें?



ईश्वर मायका अधिपति (मालिक) हैयह गीताने स्पष्टरूपसे और बार-बार कहा है, जैसेईश्वर जीवोंके मालिक होते हुए भी अवतार लेता है (४/६); ईश्वर गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वर्णोंकी रचना करता है (४/१३); जो मनुष्य सकामभावसे देवताओंकी उपासना करते हैं, उनको फल देनेकी व्यवस्था ईश्वर ही करता है (७/२२); महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव प्रकृतिमें लीन होते हैं और फिर महासर्गके आदिमें ईश्वर उनकी रचना करता है (९/७-८); सब योनियोंके जितने शरीर पैदा होते हैं, उनमें प्रकृति माँकी तरह है और ईश्वर पिताकी तरह है (१४/३-४); ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और जीवोंको उनके स्वभावके अनुसार घुमाता है (१८/६१) । जैसे सुनार औजरोंसे गहने बनाता है तो वह औजरोंके अधीन नहीं होता; क्योंकि वह गहनोंके लिये ही औजरोंको काममें लेता है । ऐसे ही ईश्वर संसारकी रचना करनेके लिये ही प्रकृतिको स्वीकार करता है ।

जो खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ हो, वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता । जीव खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ है; अतः वह दूसरोंको बन्धनसे कैसे मुक्त कर सकता है ? परन्तु ईश्वर बन्धनसे रहित है; अतः वह बन्धनमें पड़े हुए जीवोंको (यदि वे चाहें तो) बन्धनसे, पापोंसे मुक्त कर सकता है (१८/६६)मायके बन्धनमें पड़े हुए जीवकी उपासना करनेसे उपासकको बन्धनसे मुक्ति नहीं मिलती, पर ईश्वरकी उपासना करनेसे जीव बन्धनसे मुक्त हो जाता है । तात्पर्य है कि ईश्वर जीव नहीं हो सकता और जीव ईश्वर नहीं हो सकता । हाँ, जीव अनन्यभक्तिके द्वारा ईश्वरसे अभिन्न हो सकता है, ईश्वरमें मिल सकता है, पर ईश्वर नहीं हो सकता ।