मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके
लिये ही मिला है । इसीलिये एक परमात्मप्राप्तिका निश्चय हो जाय तो मनुष्य
परमात्माके सम्मुख हो जाता है । परमात्माके सम्मुख होनेसे
उसमें सद्गुण-सदाचार स्वतः आने लगते हैं, जिससे उसके चरित्रका ठीक निर्माण होने
लगता है । परन्तु जब मनुष्य परमात्मप्राप्तिको भूलकर सांसारिक पदार्थोंका
संग्रह करने और भोग भोगनेमें लग जाता है, तब उसका चरित्र गिर जाता है । जिसका चरित्र नीचे गिर
जाता है, वह मनुष्य कहलाने योग्य भी नहीं रहता ।
पर द्रोही पर
दार रत पर धन पर अपबाद ।
ते नर पाँवर
पापमय देह धरें मनुजाद ॥
(मानस ७/३९)
भगवद्गीताका
पूरा उपदेश चरित्र-निर्माणके लिये ही है । अर्जुनका भाव पहले युद्धका ही था, इसलिये उन्होंने
भगवान्को युद्धके लिये आमन्त्रित करके उनको अपने ‘सारथि’ के रूपमें स्वीकार
किया और युद्धक्षेत्रमें युद्ध करनेके लिये तैयार भी हो गये । परन्तु भगवान्का विचार
अर्जुनका उद्धार करनेका था । अर्जुनने कहा कि दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा कीजिये; मैं देख लूँ कि
मेरे साथ दो हाथ करनेवाला कौन है ? भगवान्ने वैसे ही दोनों सेनाओंके बीच
रथको खड़ा करके कहा कि इन कुरुवंशियोंको देख (१/२१-२५) । कुरुवंशियोंको देखनेकी बात
सुननेसे अर्जुनको शरीरकी प्रधानतावाला अपना कुटुम्ब याद आ गया । ये सब मर जायँगे–इस विचारसे वे
घबरा गये और अपने कर्तव्यसे विमुख होकर बोला कि मैं युद्ध नहीं करूँगा । कर्तव्यसे विमुख होना ही
चरित्र-निर्माणमें बाधक होता है । भगवान्ने कहा–अरे ! क्या करता
है तू ? युद्ध करना तो तेरा कर्तव्य है । इसलिये मोह
और कायरताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो जा (२/२-३) ।
मनुष्यको
कर्तव्य-पथपर प्रवृत्त करनेके लिये ही भगवद्गीताका आविर्भाव हुआ है । अधिकार-त्यागपूर्वक
अपने कर्त्वव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे ही चरित्र निर्माण होता है और कर्तव्यसे च्युत
होनेसे ही चरित्रका नाश होता है । भगवान् ‘न त्वेवाहं
जातु नासं......’(२/१२)–यहाँसे उपदेशका
आरम्भ करते हैं और पहले देह और देही, विनाशी और अविनाशीका विवेचन करते हैं
। तात्पर्य यह है कि विनाशी वस्तुकी ओर ध्यान न देकर अविनाशीकी
ओर ध्यान दिया जाय । ऐसा करनेसे चरित्र-निर्माण होता है ।
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