।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७९, बुधवार

अमरताका अनुभव



Listen



प्रश्‍न‒विवेकका आदर न होनेमें खास कारण क्या है ?

उत्तर‒खास कारण है‒संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । हम संयोगजन्य सुखका भोग करना चाहते हैं, इसीलिये अपने विवेकका आदर नहीं होता अर्थात् ज्ञान भीतर ठहरता नहीं । तात्पर्य है कि भोगोंमें जितनी आसक्ति होती है, उतनी ही बुद्धिमें जडता आती है, जिससे सत्संगकी तात्त्विक बातें पढ़-सुनकर भी समझमें नहीं आतीं । गीतामें आया है कि भोग और संग्रहमें आसक्त मनुष्य परमात्माकी प्राप्‍तिका निश्‍चय भी नहीं कर सकते[*] । भोगोंकी आसक्तिसे उनका ज्ञान ढका जाता है[†] । इसलिये जबतक वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, चिन्तन, स्थिरता (समाधि) आदिमें किंचिन्मात्र भी राग है, तबतक ज्ञान सीखा हुआ ही है‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य’

प्रश्‍न‒शरीर मैं नहीं हूँ‒यह तो ठीक है, पर शरीर मेरा और मेरे लिये तो है ही ?

उत्तर‒शरीरके साथ हम तीन तरहके सम्बन्ध मानते हैं‒(१) शरीर मैं हूँ, (२) शरीर मेरा है और (३) शरीर मेरे लिये है । ये तीनों ही सम्बन्ध बनावटी हैं, वास्तविक नहीं हैं । वास्तवमें शरीर ‘मैं’ भी नहीं है, ‘मेरा’ भी नहीं है और ‘मेरे लिये’ भी नहीं है । कारण कि अगर शरीर ‘मैं’ होता तो शरीरके बदलनेपर मैं भी बदल जाता और शरीरके मरनेपर मेरा भी अभाव हो जाता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर पहले जैसा था, वैसा आज नहीं है, पर मैं वही हूँ । शरीर बदला है, पर मैं नहीं बदला । अगर शरीर ‘मेरा’ होता तो उसपर मेरा पूरा अधिकार चलता अर्थात् मैं जैसा चाहता, वैसा ही शरीरको रख सकता, उसको सुन्दर बना देता, उसका रंग बदल देता, उसको बदलने नहीं देता, बीमार नहीं होने देता, कमजोर नहीं होने देता, बूढ़ा नहीं होने देता और कम-से-कम मरने तो देता ही नहीं । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीरपर हमारा बिलकुल वश नहीं चलता और न चाहते हुए भी, लाख कोशिश करते हुए भी वह बीमार हो जाता है, कमजोर हो जाता है, वृद्ध हो जाता है और मर भी जाता है । अगर शरीर ‘मेरे लिये’ होता तो उसके मिलनेपर हमें सन्तोष हो जाता, हमारे भीतर और कुछ पानेकी इच्छा नहीं रहती और शरीरसे कभी वियोग भी नहीं होता, वह सदा मेरे साथ ही रहता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर मिलनेपर भी हमें किंचिन्मात्र सन्तोष नहीं होता, हमारी इच्छाएँ समाप्‍त नहीं होतीं, हमें पूर्णताका अनुभव नहीं होता और शरीर भी निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत हमारेसे बिछुड़ जाता है ।

जैसे स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ही स्थूलशरीरसे होनेवाली ‘क्रिया’, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला ‘चिन्तन’ और कारणशरीरसे होनेवाली ‘स्थिरता’ (समाधि)-के साथ भी हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । कारण यह है कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्‍ति होती है । कोई भी चिन्तन निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत आता-जाता रहता है । स्थिरताके बाद चंचलता, समाधिके बाद व्युत्थान होता ही है । तात्पर्य है कि न तो क्रिया निरन्तर रहती है, न चिन्तन निरन्तर रहता है और न स्थिरता निरन्तर रहती है । इन तीनोंके आने-जानेका, परिवर्तनका अनुभव तो हम सबको होता है, पर अपने परिवर्तनका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । हमारा होनापन निरन्तर रहता है । हमारे साथ न तो पदार्थ एवं क्रिया रहती है, न चिन्तन रहता है और न स्थिरता ही रहती है । हम अकेले ही रहते हैं । इसलिये हमें अकेले (पदार्थ, क्रिया, चिन्तन और स्थिरतासे रहित) रहनेका स्वभाव बनाना चाहिये ।

जब स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर तथा उनके कार्य क्रिया, चिन्तन और स्थिरताके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं तो फिर उनका संयोग हो अथवा वियोग हो, हमारेमें क्या फर्क पड़ता है ? ऐसा ही अनुभव गुणातीतको भी होता है‒

प्रकाशं  च  प्रवृत्तिं  च  मोहमेव  च  पाण्डव ।

न द्वेष्‍टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥

(गीता १४ । २२)

‘हे पाण्डव ! प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह‒ये सभी अच्छी तरहसे प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता ।’

संयोग-वियोग तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है । तत्त्वमें न संयोग है, न वियोग है, प्रत्युत ‘नित्य-योग’ है‒‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) ।

जबतक हमारा सम्बन्ध पदार्थ, क्रिया, चिन्तन, स्थिरताके साथ रहता है, तबतक परतन्त्रता रहती है; क्योंकि पदार्थ, क्रिया आदि ‘पर’ हैं, ‘स्व’ नहीं हैं । इनसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर हम स्वतन्त्र (मुक्त) हो जाते हैं । वास्तवमें हमारा स्वरूप (होनापन) स्वतन्त्रता-परतन्त्रता दोनोंसे रहित है; क्योंकि स्वतन्त्रता-परतन्त्रता तो सापेक्ष हैं, पर स्वरूप निरपेक्ष है ।

भगवान्‌ने कहा है‒

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

(गीता २ । १६)

‘असत्‌का भाव विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’

शरीर, पदार्थ, क्रिया, अवस्था आदि असत्‌ हैं; अतः उनका भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है अर्थात् उनका निरन्तर अभाव है । स्वरूप सत्‌ है, अतः उसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् उसका निरन्तर भाव (सत्ता) है । असत्‌के साथ अपने सम्बन्धको न माननेसे अभावरूप असत्‌का अभाव हो जाता है और भावरूप सत्‌ ज्यों-का-त्यों रह जाता है और उसका अनुभव हो जाता है ।

ज्ञानमार्गमें असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और अपने स्वरूप (चिन्मय सत्तामात्र)-में स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर स्वरूप जिसका अंश है, उस परमात्माकी ओर स्वतः आकर्षण होता है, जिसको प्रेम कहते हैं । अपना स्वरूप सभीको प्रिय लगता है, फिर वह जिसका अंश है, वे परमात्मा कितने प्रिय लगेंगे‒इसका कोई पारावार नहीं है !

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !



[*] भोगैश्‍वर्यप्रसक्तानां         तयापहृतचेतसाम् ।

   व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥

(गीता २ । ४४)

 

[†] आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।

    कामरूपेण कौन्तेय   दुष्पूरेणानलेन च ॥

(गीता ३ । ३९)

‘हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्‍निके समान कभी तृप्‍त न होनेवाले और विवेकियोंके नित्य वैरी इस कामके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है ।’