।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

साधक, साध्य तथा साधन



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एक सत्तामात्रके सिवाय और कुछ नहीं है उस सत्तामें न ‘मैं’ है, न ‘तू’ है, न ‘यह’ है और न ‘वह’ है । संसारकी सत्ता हमारी मानी हुई है, वास्तवमें है नहीं । सत्तामात्र हैहै और संसार नहींहै नहींनहीं ही है और हैहै ही हैनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) नहींका अभाव स्वतः-स्वाभाविक है और हैका भाव स्वतः-स्वाभाविक है वह हैही हमारा साध्य है जो नहींहै, वह हमारा साध्य कैसे हो सकता है ? उस हैका अनुभव करना नहीं है, वह तो अनुभवरूप ही है

तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो साधक वह है, जो साध्यके बिना नहीं रह सकता और साध्य वह है, जो साधकके बिना नहीं रह सकता । साधक साध्यसे अलग नहीं हो सकता और साध्य साधकसे अलग नहीं हो सकता । कारण कि साधक और साध्यकी सत्ता एक ही है । हैसे अलग कोई हो सकता ही नहीं इसलिये अगर हम साधक हैं तो साध्यकी प्राप्‍ति तत्काल होनी चाहिये साधक वही है, जो साध्यके बिना अन्यकी सत्ता ही स्वीकार न करे । वह साध्यके सिवाय किसीका आश्रय न ले, पदार्थका, क्रियाका ।

जो साध्यके बिना रहे, वह साधक कैसा और जो साधकके बिना रहे, वह साध्य कैसा ? जो माँके बिना रह सके, वह बच्‍चा कैसा और जो बच्‍चेके बिना रह सके, वह माँ कैसी ? हमारा साध्य हमारे बिना नहीं रह सकता, रहनेकी ताकत ही नहीं; क्योंकि मूलमें सत्ता एक ही है जैसे समुद्र और लहरमें एक ही जलतत्त्वकी सत्ता है, ऐसे ही साधक और साध्यमें एक ही सत्ता है लहररूपसे केवल मान्यता है जबतक लहररूप शरीर (जड़ता)-से सम्बन्ध है, तबतक साधक है जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधक नहीं रहता, केवल साध्य रहता है

अगर साधक साध्यके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्यके सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह)-का भी साधक है उसने अपने मनमें दूसरेको भी सत्ता दी है अगर साध्य साधकके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि साध्यके सिवाय साधकका अन्य भी कोई साध्य है अर्थात् भोग तथा संग्रह भी साध्य है मनमें नाशवान्‌का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनमें कमी है साधकपनमें जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्यसे दूरी रहती है पूर्ण साधक होनेपर साध्यकी प्राप्‍ति हो जाती है

शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये माननेसे ही साधकको साध्यकी अप्राप्‍ति दीखती है । साध्यके सिवाय अन्यकी सत्ता स्वीकार न करना ही उसकी प्राप्‍तिका बढ़िया उपाय है । इसलिये साधककी दृष्टि केवल इस तरफ रहनी चाहिये कि संसार नहीं है । संसारका पहले भी अभाव था, बादमें भी अभाव हो जायगा और बीचमें भी वह प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है । संसारकी स्थिति है ही नहीं । उत्पत्ति-प्रलयकी धारा ही स्थितिरूपसे दीखती है ।

साधकके लिये साध्यमें विश्‍वास और प्रेम होना बहुत जरूरी है । विश्‍वास और प्रेम उसी साध्यमें होना चाहिये, जो विवेक-विरोधी न हो । मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तुमें विश्‍वास और प्रेम करना विवेक-विरोधी है । विश्‍वास और प्रेम‒दोनोंमें कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे । विश्‍वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा । अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्‍वासमें कमी है अर्थात्‌ साध्य (परमात्मा)-के विश्‍वासके साथ संसारका विश्‍वास भी है । पूर्ण विश्‍वास होनेपर एक सत्ताके सिवाय अन्य (संसार)-की सत्ता ही नहीं रहेगी । साध्यमें विश्‍वासकी कमी होगी तो साधनमें भी विश्‍वासकी कमी होगी अर्थात्‌ साध्यके सिवाय अन्य इच्छाएँ भी होंगी । जितनी दूसरी इच्छा है, उतनी ही साधनमें कमी है ।

सम्पूर्ण इच्छाओंके मूलमें एक परमात्माकी ही इच्छा है । उसीपर सम्पूर्ण इच्छाएँ टिकी हुई हैं । हमसे भूल यह होती है कि अपनी इस स्वाभाविक (परमात्माकी) इच्छाको हम शरीरकी सहायतासे पूरी करना चाहते हैं । वास्तवमें परमात्माकी प्राप्‍तिमें शरीर अथवा संसारकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है । परमात्मा अपनेमें हैं; अतः कुछ न करनेसे ही उनका अनुभव होगा । कुछ करनेके लिये तो शरीरकी आवश्यकता है, पर कुछ न करनेके लिये शरीरकी क्या आवश्यकता है ? कुछ देखनेके लिये नेत्रोंकी आवश्यकता है, पर कुछ न देखनेके लिये नेत्रोंकी क्या आवश्यकता है ? हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करनेसे कुछ न करनेकी सामर्थ्य आती है ।