।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने बताया कि मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, अब आगेके श्‍लोकमें भगवान्‌ अपने जन्म (अवतार)-की विलक्षणता बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के जन्मकी विलक्षणता ।

     अजोऽपि सन्‍नव्ययात्मा भूतानामीश्‍वरोऽपि सन् ।

    प्रकृतिं   स्वामधिष्‍ठाय    सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥

अर्थ‒मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्‍वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ ।

अजः = (मैं) अजन्मा (और)

अपि = भी

अव्ययात्मा = अविनाशी-स्वरूप

स्वाम् = अपनी

सन् = होते हुए

प्रकृतिम् = प्रकृतिको

अपि = भी (तथा)

अधिष्‍ठाय = अधीन करके

भूतानाम् = सम्पूर्ण प्राणियोंका

आत्ममायया=अपनी योगमायासे

ईश्‍वरः = ईश्‍वर

सम्भवामि = प्रकट होता हूँ ।

सन् = होते हुए

 

व्याख्या‒[ यह छठा श्‍लोक है और इसमें छः बातोंका ही वर्णन हुआ है । अज, अव्यय और ईश्‍वर‒ये तीन बातें भगवान्‌की हैं; प्रकृति और योगमाया‒ये दो बातें भगवान्‌की शक्तिकी हैं और एक बात भगवान्‌के प्रकट होनेकी है । ]

१.गीतामें भगवान्‌ने अपने अज, अव्यय और ईश्‍वर‒इन तीनों रूपोंको जानने और न जाननेकी बात कही है; जैसे‒

१–‘अज’-स्वरूपको जाननेकी बात‒

                यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्‍वरम् ।

 असम्मूढ स  मर्त्येषु  सर्वपापै प्रमुच्यते ॥ (१० । ३)

न जाननेकी बात‒

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ (७ । २५)

२‒‘अव्यय’-स्वरूपको जाननेकी बात‒

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ (९ । १३)

न जाननेकी बात‒

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ (७ । २४)

३‒‘ईश्‍वर’-स्वरूपको जाननेकी बात‒

भोक्तारं     यज्ञतपसां    सर्वलोकमहेश्‍वरम् ।

              सुहृद सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (५ । २९)

न जाननेकी बात‒

अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् ।

                      परं  भावमजानन्तो   मम    भूतमहेश्‍वरम् ॥ (९ । ११)

अजोऽपि सन्‍नव्ययात्मा’‒इन पदोंसे भगवान् यह बताते हैं कि साधारण मनुष्योंकी तरह न तो मेरा जन्म है और न मेरा मरण ही है । मनुष्य जन्म लेते हैं और मर जाते हैं; परन्तु मैं ‘अजन्मा’ होते हुए भी प्रकट हो जाता हूँ और ‘अविनाशी’ होते हुए भी अन्तर्धान हो जाता हूँ । प्रकट होना और अन्तर्धान होना‒दोनों ही मेरी अलौकिक लीलाएँ हैं ।

सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट (अव्यक्त) थे और मरनेके बाद भी अप्रकट (अव्यक्त) हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट (व्यक्त) हैं (गीता‒दूसरे अध्यायका अट्ठाईसवाँ श्‍लोक) । परन्तु भगवान् सूर्यकी तरह सदा ही प्रकट रहते हैं । तात्पर्य है कि जैसे सूर्य उदय होनेसे पहले भी ज्यों-का-त्यों रहता है और अस्त होनेके बाद भी ज्यों-का-त्यों रहता है अर्थात् सूर्य तो सदा ही रहता है; किन्तु स्थानविशेषके लोगोंकी दृष्‍टिमें उसका उदय और अस्त होना दीखता है । ऐसे ही भगवान्‌का प्रकट होना और अन्तर्धान होना लोगोंकी दृष्‍टिमें है, वास्तवमें भगवान् सदा ही प्रकट रहते हैं ।

दूसरे प्राणी जैसे कर्मोंके परतन्त्र होकर जन्म लेते हैं, भगवान्‌का जन्म वैसे नहीं होता । कर्मोंकी परतन्त्रतासे जन्म होनेपर दो बातें होती हैं‒आयु और सुख-दुःखका भोग । भगवान्‌में ये दोनों ही नहीं होते ।

दूसरे लोग जन्मते हैं तो शरीर पहले बालक होता है, फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है, फिर वृद्ध हो जाता है और फिर मर जाता है । परन्तु भगवान्‌में ये परिवर्तन नहीं होते । वे अवतार लेकर बाललीला करते हैं और किशोर-अवस्था (पंद्रह वर्षकी अवस्था)-तक बढ़नेकी लीला करते हैं । किशोर-अवस्थातक पहुँचनेके बाद फिर वे नित्य किशोर ही रहते हैं । सैकड़ों वर्ष बीतनेपर भी भगवान् वैसे ही सुन्दर-स्वरूप रहते हैं । इसीलिये भगवान्‌के जितने चित्र बनाये जाते हैं, उसमें उनकी दाढ़ी-मूछें नहीं होतीं (अब कोई बना दे तो अलग बात है !) । इस प्रकार दूसरे प्राणियोंकी तरह न तो भगवान्‌का जन्म होता है, न परिवर्तन होता है और न मृत्यु ही होती है ।

‘भूतानामीश्‍वरोऽपि सन्’प्राणिमात्रके एकमात्र ईश्‍वर (महान् शासक) रहते हुए ही भगवान् अवतारके समय छोटे-से बालक बन जाते हैं; परन्तु बालक बन जानेपर भी उनके ईश्‍वरभाव (शासकत्व)-में कोई कमी नहीं आती; जैसे‒भगवान् श्रीकृष्णने छठीके दिन ही पूतना राक्षसीको मार दिया । पूतनाका शरीर ढाई योजनका और महान् भयंकर था । यदि उनमें ईश्‍वरभाव न होता तो छठीके दिन पूतनाको कैसे मार देते ? भगवान्‌ने तीन महीनेकी अवस्थामें शकटासुरको, एक वर्षकी अवस्थामें तृणावर्तको और पाँच वर्षकी अवस्थामें अघासुरको मार दिया । इस तरह भगवान्‌ने बाल्यावस्थामें ही अनेक राक्षसोंको मार दिया । सात वर्षकी अवस्थामें ही उन्होंने गोवर्धन पर्वतको एक अँगुलीपर उठा लिया !

सम्पूर्ण प्राणियोंके ईश्‍वर होते हुए भी भगवान् अवतारके समय छोटे-से-छोटे बन जाते हैं और छोटा-सा-छोटा काम भी कर देते हैं । वास्तवमें यही भगवान्‌की भगवत्ता है । भगवान् अर्जुनके घोड़े हाँकते हैं और उनकी आज्ञाका पालन करते हैं, फिर भी भगवान्‌का अर्जुनपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्‍वरभाव वैसा-का-वैसा ही है । सारथि होनेपर भी वे अर्जुनको गीताका महान् उपदेश देते हैं । भगवान् श्रीराम पिता दशरथकी आज्ञाको टालते नहीं और चौदह वर्षके लिये वनमें चले जाते हैं, फिर भी भगवान्‌का दशरथपर और दूसरे प्राणियोंपर ईश्‍वरभाव वैसा-का-वैसा ही है ।

‘प्रकृतिं स्वामधिष्‍ठाय’जो सत्त्व, रज और तम‒इन तीनों गुणोंसे अलग है, वह भगवान्‌की शुद्ध प्रकृति है । यह शुद्ध प्रकृति भगवान्‌का स्वकीय सच्‍चिदानन्दघनस्वरूप है । इसीको संधिनी-शक्ति, संवित्-शक्ति और आह्लादिनी-शक्ति कहते हैं । इसीको चिन्मयशक्ति, कृपाशक्ति आदि नामोंसे कहते हैं । श्रीराधाजी, श्रीसीताजी आदि भी यही हैं । भगवान्‌को प्राप्‍त करानेवाली ‘भक्तिऔर ‘ब्रह्मविद्या’ भी यही है ।

२.धिनी-शक्ति ‘सत्’-स्वरूपा, वित्-शक्ति ‘चित्’-स्वरूपा और आह्लादिनी-शक्ति ‘आनन्द’-स्वरूपा है ।

३.अवतारके समय भगवान् अपनी शुद्ध प्रकृतिरूप शक्तियोंसहित अवतरित होते हैं और अवतार-कालमें इन शक्तियोंसे काम लेते हैं । श्रीराधाजी भगवान्‌की शक्ति हैं और उनकी अनुगामिनी अनेक सखियाँ हैं, जो सब भक्तिरूपा हैं और भक्ति प्रदान करनेवाली हैं । भक्तिरहित मनुष्य इनको नहीं जान सकते । इनको भगवान् और राधाजीकी कृपासे ही जान सकते हैं ।

प्रकृति भगवान्‌की शक्ति है । जैसे, अग्‍निमें दो शक्तियाँ रहती हैं‒प्रकाशिका और दाहिका । प्रकाशिका-शक्ति अन्धकारको दूर करके प्रकाश कर देती है तथा भय भी मिटाती है । दाहिका-शक्ति जला देती है तथा वस्तुको पकाती एवं ठण्डक भी दूर करती है । ये दोनों शक्तियाँ अग्‍निसे भिन्‍न भी नहीं हैं और अभिन्‍न भी नहीं हैं । भिन्‍न इसलिये नहीं हैं कि वे अग्‍निरूप ही हैं अर्थात् उन्हें अग्‍निसे अलग नहीं किया जा सकता, और अभिन्‍न इसलिये नहीं हैं कि अग्‍निके रहते हुए भी मन्त्र, औषध आदिसे अग्‍निकी दाहिका-शक्ति कुण्ठित की जा सकती है । ऐसे ही भगवान्‌में जो शक्ति रहती है, उसे भगवान्‌से भिन्‍न और अभिन्‍न‒दोनों ही नहीं कह सकते ।

जैसे दियासलाईमें अग्‍निकी सत्ता तो सदा रहती है, पर उसकी प्रकाशिका और दाहिका-शक्ति छिपी हुई रहती है; ऐसे ही भगवान् सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें सदा रहते हैं, पर उनकी शक्ति छिपी हुई रहती है । उस शक्तिको अधिष्ठित करके अर्थात् अपने वशमें करके, उसके द्वारा भगवान् प्रकट होते हैं । जैसे, जबतक अग्‍नि अपनी प्रकाशिका और दाहिका-शक्तिको लेकर प्रकट नहीं होती, तबतक सदा रहते हुए भी अग्‍नि नहीं दीखती, ऐसे ही जबतक भगवान् अपनी शक्तिको लेकर प्रकट नहीं होते, तबतक भगवान् हरदम रहते हुए भी नहीं दीखते ।

राधाजी, सीताजी, रुक्मिणीजी आदि सब भगवान्‌की निजी दिव्य शक्तियाँ हैं । भगवान् सामान्यरूपसे सब जगह रहते हुए भी कोई काम नहीं करते । जब करते हैं, तब अपनी दिव्य शक्तिको लेकर ही करते हैं । उस दिव्य शक्तिके द्वारा भगवान् विचित्र-विचित्र लीलाएँ करते हैं । उनकी लीलाएँ इतनी विचित्र और अलौकिक होती हैं कि उनको सुनकर, गाकर और याद करके भी जीव पवित्र होकर अपना उद्धार कर लेते हैं ।

निर्गुण-उपासनामें वही शक्ति ‘ब्रह्मविद्या’ हो जाती है, और सगुण-उपासनामे वही शक्ति ‘भक्ति’ हो जाती है । जीव भगवान्‌का ही अंश है । जब वह दूसरोंमें मानी हुई ममता हटाकर एकमात्र भगवान्‌की स्वतःसिद्ध वास्तविक आत्मीयताको जाग्रत् कर लेता है, तब भगवान्‌की शक्ति उसमें भक्तिरूपसे प्रकट हो जाती है । वह भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान्‌को भी साकाररूपसे प्रकट कर देती है, भगवान्‌को भी खींच लेती है । वह भक्ति भी भगवान् ही देते हैं ।

भगवान्‌की भक्तिरूप शक्तिके दो रूप हैं‒विरह और मिलन । भगवान् विरह भी भेजते हैं,

४.संतोंकी वाणीमें आया है‒‘दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाय ।’ अर्थात् भगवान्‌ने कृपा करके मेरे लिये विरह भेज दिया !

और मिलन भी । जब भगवान् विरह भेजते हैं, तब भक्त भगवान्‌के बिना व्याकुल हो जाता है । व्याकुलताकी अग्‍निमें संसारकी आसक्ति जल जाती है और भगवान् प्रकट हो जाते हैं । ज्ञानमार्गमें भगवान्‌की शक्ति पहले उत्कट जिज्ञासाके रूपमें आती है (जिससे तत्त्वको जाने बिना साधकसे रहा नहीं जाता) और फिर ब्रह्मविद्या-रूपसे जीवके अज्ञानका नाश करके उसके वास्तविक स्वरूपको प्रकाशित कर देती है । परन्तु भगवान्‌की वह दिव्य शक्ति, जिसे भगवान् विरहरूपसे भेजते हैं, उससे भी बहुत विलक्षण है । भगवान् कहाँ हैं ? क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?‒इस प्रकार भक्त व्याकुल हो जाता है, तो यह व्याकुलता सब पापोंका नाश करके भगवान्‌को साकाररूपसे प्रकट कर देती है । व्याकुलतासे जितना जल्दी काम बनता है, उतना विवेक-विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं ।

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