।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अब भगवान् आगेके श्‍लोकमें अपने अवतारका अवसर बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के अवतारका अवसर ।

       यदा यदा हि धर्मस्य  ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७ ॥

अर्थ‒हे भरतवंशी अर्जुन ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको (साकाररूपसे) प्रकट करता हूँ ।

भारत = हे भरतवंशी अर्जुन !

भवति = होती है,

यदा, यदा = जब-जब

तदा = तब-तब

धर्मस्य = धर्मकी

हि = ही

ग्लानिः = हानि (और)

अहम् = मैं

अधर्मस्य = अधर्मकी

आत्मानम् = अपने-आपको

अभ्युत्थानम् = वृद्धि

सृजामि = (साकाररूपसे) प्रकट करता हूँ ।

व्याख्या‒‘यदा यदा हि धर्मस्य.....अभ्युत्थानमधर्मस्य’धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धिका स्वरूप है‒भगवत्प्रेमी, धर्मात्मा, सदाचारी, निरपराध और निर्बल मनुष्योंपर नास्तिक, पापी, दुराचारी और बलवान् मनुष्योंका अत्याचार बढ़ जाना तथा लोगोंमें सद्गुण-सदाचारोंकी अत्यधिक कमी और दुर्गुण-दुराचारोंकी अत्यधिक वृद्धि हो जाना ।

यदा यदा’ पदोंका तात्पर्य है कि जब-जब आवश्यकता पड़ती है, तब-तब भगवान् अवतार लेते हैं । एक युगमें भी जितनी बार आवश्यकता और अवसर प्राप्‍त हो जाय, उतनी बार अवतार ले सकते हैं । उदाहरणार्थ, समुद्र-मंथनके समय भगवान्‌ने अजितरूपसे समुद्र-मन्थन किया, कच्छपरूपसे मन्दराचलको धारण किया तथा सहस्रबाहुरूपसे मन्दराचलको ऊपरसे दबाकर रखा । फिर देवताओंको अमृत बाँटनेके लिये मोहिनी-रूप धारण किया । इस प्रकार भगवान्‌ने एक साथ अनेक रूप धारण किये ।

अधर्मकी वृद्धि और धर्मका ह्रास होनेका मुख्य कारण है‒नाशवान् पदार्थोंकी ओर आकर्षण । जैसे माता और पितासे शरीर बनता है, ऐसे ही प्रकृति और परमात्मासे सृष्‍टि बनती है । इसमें प्रकृति और उसका कार्य संसार तो प्रतिक्षण बदलता रहता है, कभी क्षणमात्र भी एकरूप नहीं रहता और परमात्मा तथा उनका अंश जीवात्मा‒दोनों सम्पूर्ण देश, काल आदिमें नित्य-निरन्तर रहते हैं, इनमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता । जब जीव अनित्य, उत्पत्ति-विनाशशील प्राकृत पदार्थोंसे सुख पानेकी इच्छा करने लगता है और उनकी प्राप्‍तिमें सुख मानने लगता है, तब उसका पतन होने लगता है । लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाजमें पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं ।

सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग‒इन चारों युगोंकी ओर देखा जाय तो इनमें भी क्रमशः धर्मका ह्रास होता है । सत्ययुगमें धर्मके चारों चरण रहते हैं, त्रेतायुगमें धर्मके तीन चरण रहते हैं, द्वापरयुगमें धर्मके दो चरण रहते हैं और कलियुगमें धर्मका केवल एक चरण शेष रहता है । जब युगकी मर्यादासे भी अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है, तब भगवान् धर्मकी पुनः स्थापना करनेके लिये अवतार लेते हैं ।

तदात्मानं सृजाम्यहम्’जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं । अतः भगवान्‌के अवतार लेनेका मुख्य प्रयोजन है‒धर्मकी स्थापना करना और अधर्मका नाश करना ।

धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होनेपर लोगोंकी प्रवृत्ति अधर्ममें हो जाती है । अधर्ममें प्रवृत्ति होनेसे स्वाभाविक पतन होता है । भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं । इसलिये लोगोंको पतनमें जानेसे रोकनेके लिये वे स्वयं अवतार लेते हैं ।

कर्मोंमें सकामभाव उत्पन्‍न होना ही धर्मकी हानि है और अपने-अपने कर्तव्यसे च्युत होकर निषिद्ध आचरण करना ही अधर्मका अभ्युत्थान है ! ‘काम’ अर्थात् कामनासे ही सब-के-सब अधर्म, पाप, अन्याय आदि होते हैं (गीता‒तीसरे अध्यायका सैंतीसवाँ श्‍लोक) । अतः इस ‘काम’ का नाश करनेके लिये तथा निष्कामभावका प्रसार करनेके लिये भगवान् अवतार लेते हैं ।

यहाँ शंका हो सकती है कि वर्तमान समयमें धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि बहुत हो रही है, फिर भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते ? इसका समाधान यह है कि युगको देखते हुए अभी वैसा समय नहीं आया है, जिससे भगवान् अवतार लें । त्रेतायुगमें राक्षसोंने ऋषि-मुनियोंको मारकर उनकी हड्डियोंके ढेर लगा दिये थे । यह तो त्रेतायुगसे भी गया-बीता कलियुग है, पर अभी धर्मात्मा पुरुष जी रहे हैं, उनका कोई नाश नहीं करता । दूसरी एक बात और है । जब धर्मका ह्रास और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब भगवान्‌की आज्ञासे संत इस पृथ्वीपर आते हैं अथवा यहींसे विशेष साधक पुरुष प्रकट हो जाते हैं और धर्मकी स्थापना करते हैं । कभी-कभी परमात्माको प्राप्‍त हुए कारक महापुरुष भी संसारका उद्धार करनेके लिये आते हैं । साधक और सन्त पुरुष जिस देशमें रहते हैं, उस देशमें अधर्मकी वैसी वृद्धि नहीं होती और धर्मकी स्थापना होती है ।

जब साधकों और सन्त-महात्माओंसे भी लोग नहीं मानते, प्रत्युत उनका विनाश करना आरम्भ कर देते हैं और जब धर्मका प्रचार करनेवाले बहुत कम रहते हैं तथा जिस युगमें जैसा धर्म होना चाहिये, उसकी अपेक्षा भी बहुत अधिक धर्मका ह्रास हो जाता है: तब भगवान् स्वयं आते हैं ।

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