।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒जन्मकी दिव्यताका वर्णन तो हो गया, अब कर्मोंकी दिव्यता क्या होती है‒इस विषयका आरम्भ करते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भक्तोंके भावोंके अनुसार भगवान्‌का बर्ताव ।

        ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

   मम  वर्त्मानुवर्तन्ते  मनुष्याः  पार्थ सर्वशः ॥११॥

अर्थ‒हे पृथानन्दन ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं ।

पार्थ = हे पृथानन्दन !

तथा, एव = उसी प्रकार

ये = जो भक्त

भजामि = आश्रय देता हूँ; (क्योंकि)

यथा = जिस प्रकार

मनुष्याः = सभी मनुष्य

माम् = मेरी

सर्वशः = सब प्रकारसे

प्रपद्यन्ते = शरण लेते हैं,

मम = मेरे

अहम् = मैं

वर्त्म = मार्गका

तान् = उन्हें

अनुवर्तन्ते = अनुसरण करते हैं ।

व्याख्या‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’भक्त भगवान्‌की जिस भावसे, जिस सम्बन्धसे, जिस प्रकारसे शरण लेता है, भगवान् भी उसे उसी भावसे, उसी सम्बन्धसे, उसी प्रकारसे आश्रय देते हैं । जैसे, भक्त भगवान्‌को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्‍ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानता है तो वे श्रेष्‍ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्‍ठ माता-पिता बन जाते हैं, पुत्र मानता है तो वे श्रेष्‍ठ पुत्र बन जाते हैं, भाई मानता है तो वे श्रेष्‍ठ भाई बन जाते हैं, सखा मानता है तो वे श्रेष्‍ठ सखा बन जाते हैं, नौकर मानता है तो वे श्रेष्‍ठ नौकर बन जाते हैं । भक्त भगवान्‌के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान् भी भक्तके बिना व्याकुल हो जाते हैं ।

अर्जुनका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति सखाभाव था तथा वे उन्हें अपना सारथि बनाना चाहते थे; अतः भगवान् सखाभावसे उनके सारथि बन गये । विश्‍वामित्र ऋषिने भगवान् श्रीरामको अपना शिष्य मान लिया तो भगवान् उनके शिष्य बन गये । इस प्रकार भक्तोंके श्रद्धाभावके अनुसार भगवान्‌का वैसा ही बननेका स्वभाव है ।

अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी भगवान् भी अपने ही बनाये हुए साधारण मनुष्योंके भावोंके अनुसार बर्ताव करते हैं, यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता, दयालुता और अपनापन है !

भगवान् विशेषरूपसे भक्तोंके लिये ही अवतार लेते हैं‒ऐसा प्रस्तुत प्रकरणसे सिद्ध होता है । भक्तलोग जिस भावसे, जिस रूपमें भगवान्‌की सेवा करना चाहते हैं, भगवान्‌को उनके लिये उसी रूपमें आना पड़ता है । जैसे, उपनिषद्‍में आया है‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक १ । ४ । ३)‒अकेले भगवान्‌का मन नहीं लगा, तो वे ही भगवान् अनेक रूपोंमें प्रकट होकर खेल खेलने लगे । ऐसे ही जब भक्तोंके मनमें भगवान्‌के साथ खेल खेलनेकी इच्छा हो जाती है, तब भगवान् उनके साथ खेल खेलने (लीला करने)-के लिये प्रकट हो जाते हैं । भक्त भगवान्‌के बिना नहीं रह सकता तो भगवान् भी भक्तके बिना नहीं रह सकते ।

यहाँ आये ‘यथा’ और ‘तथा’इन प्रकारवाचक पदोंका अभिप्राय ‘सम्बन्ध’, ‘भाव’ और ‘लगन’ से है । भक्त और भगवान्‌का प्रकार एक-सा होनेपर भी इनमें एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि भगवान् भक्तकी चालसे नहीं चलते, प्रत्युत अपनी चाल (शक्ति)-से चलते हैं

१.दरिया  दूषण दास  में, नहीं  राम में दोष ।

  जन चाले इक पाँवडो, हरि चाले सौ कोस ॥

भगवान् सर्वत्र विद्यमान, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, परम सुहृद् और सत्यसंकल्प हैं । भक्तको केवल अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है, फिर भगवान् भी अपनी पूरी शक्तिसे उसे प्राप्‍त हो जाते हैं ।

भगवत्प्रप्‍तिमें बाधा साधक स्वयं लगाता है; क्योंकि भगवत्प्राप्‍तिके लिये वह समझ, सामग्री, समय और सामर्थ्यको अपनी मानकर उन्हें पूरा नहीं लगाता, प्रत्युत अपने पास बचाकर रख लेता है । यदि वह उन्हें अपना न मानकर उन्हें पूरा लगा दे तो उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है । कारण कि यह समझ, सामग्री आदि उसकी अपनी नहीं हैं; प्रत्युत भगवान्‌से मिली हैं; भगवान्‌की हैं । अतः इन्हें अपनी मानना ही बाधा है । साधक स्वयं भी भगवान्‌का ही अंश है । उसने खुद अपनेको भगवान्‌से अलग माना है, भगवान्‌ने नहीं ।

भक्ति (प्रेम) कर्मजन्य अर्थात् किसी साधन-विशेषका फल नहीं है । भगवान्‌के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्‍त होती है । दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्‍ठ शरणागतिका भाव है । यहाँ भगवान् मानो इस बातको कह रहे हैं कि तुम अपना सब कुछ मुझे दे दोगे तो मैं भी अपना सब कुछ तुम्हें दे दूँगा और तुम अपने-आपको मुझे दे दोगे तो मैं भी अपने-आपको तुम्हें दे दूँगा । भगवत्प्राप्‍तिका कितना सरल और सस्ता सौदा है !

अपने-आपको भगवच्‍चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान् भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते । वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं‒

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।

करत सुरति सय  बार  हिए की ॥

(मानस १ । २९ । ३)

इस (ग्यारहवें) श्‍लोकमें द्वैत-अद्वैत, सगुण-निर्गुण, सायुज्य-सामीप्य आदि शास्‍त्रीय विषयका वर्णन नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से अपनेपनका ही वर्णन है । जैसे, नवें श्‍लोकमें भगवान्‌के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेसे भगवत्प्राप्‍ति होनेका वर्णन है । ‘केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्‌का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ’इस प्रकार भगवान्‌में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्‍ति शीघ्र एवं सुगमतासे हो जाती है । अतः साधकको केवल भगवान्‌में ही अपनापन मान लेना चाहिये (जो वास्तवमें है), चाहे समझमें आये अथवा न आये । मान लेनेपर जब संसारके झूठे सम्बन्ध भी सच्‍चे प्रतीत होने लगते हैं, फिर जो भगवान्‌का सदासे ही सच्‍चा सम्बन्ध है, वह अनुभवमें क्यों नहीं आयेगा ? अर्थात् अवश्य आयेगा ।

शंका‒जो भगवान्‌को जिस भावसे स्वीकार करते हैं, भगवान् भी उनसे उसी भावसे बर्ताव करते हैं, तो फिर यदि कोई भगवान्‌को द्वेष, वैर आदिके भावसे स्वीकार करेगा तो क्या भगवान् भी उससे उसी (द्वेष आदिके) भावसे बर्ताव करेंगे ?

समाधान‒यहाँ ‘प्रपद्यन्ते’ पदसे भगवान्‌की प्रपत्ति अर्थात् शरणागतिका ही विषय है; उनसे द्वेष, वैर आदिका विषय नहीं । अतः यहाँ इस विषयमें शंका ही नहीं उठ सकती । फिर भी इसपर थोड़ा विचार करें तो भगवान्‌के स्वीकार करनेका तात्पर्य है‒कल्याण करना । जो भगवान्‌को जिस भावसे स्वीकार करता है, भगवान् भी उससे वैसा ही आचरण करके अन्तमें उसका कल्याण ही करते हैं

२.कामाद् द्वेषाद् भयात् स्तेहाद् यथा भक्त्येश्‍वरे मनः ।

   आवेश्य    तदघं     हित्वा    बहवस्तद्‍गतिं    गताः ॥

(श्रीमद्भा ७ । १ । २९)

‘अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्‍नेहसे अपने मनको भगवान्‌में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्‌को प्राप्‍त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे ।’

भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं (गीता‒पाँचवें अध्यायका उनतीसवाँ श्‍लोक) । इसलिये जिसका जिसमें हित होता है, भगवान् उसके लिये वैसा ही प्रबन्ध कर देते हैं । वैर-द्वेष रखनेवालोंका भी जिससे कल्याण हो जाय, वैसा ही भगवान् करते हैं । [ वैर-द्वेष रखनेवाले भगवान्‌का बिगाड़ भी क्या कर लेंगे ? ] अंगदजीको रावणकी सभामें भेजते समय भगवान् श्रीराम कहते हैं कि वही बात कहना, जिससे हमारा काम भी हो और रावणका हित भी हो‒‘काजु हमार तासु हित होई’ (मानस ६ । १७ । ४) ।

भगवान्‌की सुहृत्ताकी तो बात ही क्या, भक्त भी समस्त प्राणियोंके सुहृद् होते हैं‒‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा ३ । २५ । २१) । जब भक्तोंसे भी किसीका किंचिन्मात्र भी अहित नहीं होता, तब भगवान्‌से किसीका अहित हो ही कैसे सकता है ? भगवान्‌से किसी प्रकारका भी सम्बन्ध जोड़ा जाय, वह कल्याण करनेवाला ही होता है; क्योंकि भगवान् परम दयालु, परम सुहृद् और चिन्मय हैं । जैसे गंगामें स्‍नान वैशाख मासमें किया जाय अथवा माघ मासमें, दोनोंका ही माहात्म्य एक समान है । परन्तु वैशाखके स्‍नानमें जैसी प्रसन्‍नता होती है, वैसी प्रसन्‍नता माघके स्‍नानमें नहीं होती । इसी प्रकार भक्ति-प्रेमपूर्वक भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़नेवालोंको जैसा आनन्द होता है, वैसा आनन्द वैर-द्वेषपूर्वक भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़नेवालोंको नहीं होता ।

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