(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसा है, वैसा अनुभव करनेका नाम ‘ज्ञान’ है और जैसा है ही नहीं, उसको ‘है’ मान लेनेका नाम ‘अज्ञान’ है । जिनको असत्के अभावका और सत्के भावका
अनुभव हो गया है, वे तत्त्वज्ञानी हैं, जीवन्मुक्त हैं, विदेह हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, गुणातीत हैं, भगवत्प्रेमी हैं, वैष्णव हैं । परन्तु जो असत्का भाव
और सत्का अभाव मानते हैं, असत्को प्राप्त और सत्को अप्राप्त
मानते हैं, वे अज्ञानी हैं, बेसमझ हैं, विपरीत बुद्धिवाले हैं ।
भगवान् कहते हैं‒
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः
।
(गीता २ । १६)
असत्का अभाव और सत्का भाव‒दोनोंके
तत्त्व-(निष्कर्ष-) को जाननेवाले जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष एक सत्-तत्त्वको
ही देखते हैं अर्थात् स्वतः-स्वाभाविक एक ‘है’ का ही अनुभव करते हैं[*] । तात्पर्य है कि असत्का तत्त्व भी सत् है और सत्का
तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक ‘सत्’ ही है‒ऐसा जान लेनेपर उन महापुरुषोंकी दृष्टिमें एक सत्-तत्त्व‒‘है’ के सिवाय और किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं ।
असत्की सत्ता विद्यमान न रहनेसे उसका
अभाव और सत्का भाव सिद्ध हुआ और सत्का अभाव विद्यमान न रहनेसे उसका भाव सिद्ध हुआ
। निष्कर्ष यह निकला कि असत् है ही नहीं, प्रत्युत सत् ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । सत्के सिवाय और कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं तथा होनेकी सम्भावना ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
[*] ‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं‒देखना और अनुभव करना (जानना)
‘पश्यार्थैश्चानालोचने’ (पाणि॰ अष्टा॰ ८ । १ । २५) ।
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