(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒परमात्माकी प्राप्तिमें
भविष्यकी अपेक्षा नहीं है, कैसे ?
स्वामीजी‒जो वस्तु दूर हो, उसके लिये रास्ता होता
है । सर्वव्यापक वस्तुके लिये रास्ता नहीं होता । उसकी प्राप्तिमें क्रिया भी कारण
नहीं होती । परमात्मा सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण हैं । जहाँ आप हो, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे हैं
। उनके समान सर्वव्यापक वस्तु कोई है ही नहीं । वे केवल चाहनासे मिल जाते हैं । संसारकी
कोई चीज चाहनामात्रसे नहीं मिलती, पर परमात्मा चाहनामात्रसे मिलते
हैं । जैसे परमात्मा अद्वितीय हैं तो उनकी चाहना भी अद्वितीय होनी चाहिये । एक परमात्माके सिवाय दूसरी कोई चाहना न हो तो परमात्माकी प्राप्ति
हो ही जायगी । कोई भी चाहना मत रखो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।
चाह चूहड़ी रामदास, सब नीचों
में नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था, चाह न होती
बीच ॥
आप कुछ भी चाहना मत रखो, अगर परमात्माकी
प्राप्ति न हो तो मेरा कान पकड़ना !
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गोस्वामीजी महाराजने रामायण लिखी तो सबसे पहले नमस्कार
किया । उसमें उन्होंने गुरुजीको जो नमस्कार किया, उस सोरठेमें भी विलक्षणता है । पहलेके
सभी सोरठोंके अन्तमें ‘बदन, सदन’, ‘गहन, दहन’, ‘नयन, सयन’
और ‘अयन, मयन’ शब्द आये हैं, पर गुरु-वन्दनामें ‘हरि निकर’
शब्द आये हैं‒
बंदउँ गुरु पद
कंज कृपा सिंधु
नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन
रबि कर निकर ॥
(मानस,
बाल ५)
ऐसा पहलेके किसी सोरठेमें नहीं आया है । तात्पर्य है कि
जिससे ज्ञान मिला है, उस गुरुके बराबर कोई नहीं है । गोस्वामीजी मामूली कवि नहीं थे
। जिनसे लाभ हुआ है, उनके प्रति उनकी कितनी कृतज्ञता है !
सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका रोजाना स्नान एवं नित्यकर्म करनेके बाद
बैठकर नाड़ीजप करते थे; क्योंकि नाड़ीजपसे उनको लाभ हुआ था । सेठजीके
पिता खूबचन्दजीकी बात सुनी कि उनकी बूढ़ी दादीजी थीं । ज्यादा चलना-फिरना न होनेसे वे प्रायः खाटपर बैठी रहतीं । खूबचन्दजी रोजाना खाटकी परिक्रमा
करके माँजीको दण्डवत् करके नमस्कार करते थे । तात्पर्य है कि माँ-बापका और गुरुका जो आदर करेगा, उसका आदर होगा । उसमें
विलक्षणता आयेगी । माँ-बापके प्रति, गुरुके प्रति,
पूज्यजनोंके प्रति जितना अधिक भाव होगा, उतना लाभ
होगा ही ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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