(गत ब्लॉगसे आगेका)
मन अपना नहीं है‒यह मान लो तो मन बहुत सुगमतासे वशमें हो
जायगा । जबतक मनको अपना समझोगे, तबतक मन चंचल रहेगा । लोग बड़ी
शिकायत करते हैं कि मन नहीं लगता ! मन लगे कैसे ? आपने मनको समझा नहीं ! मन ऐसा है कि आप जहाँ जाते हो,
मन वहीं चला जाता है । जहाँ आप नहीं जाते, वहाँ
मन नहीं जाता । मन खराब नहीं है । मन तो एक इन्द्रिय है, सूक्ष्म
अन्तःकरण है । करण कर्ताके अधीन होता है । रेल वहीं जाती है, जहाँ पटरी हो । जहाँ पटरी नहीं है, वहाँ रेल नहीं जाती
। ऐसे ही मन वहीं जाता है, जहाँ आपने सम्बन्ध जोड़ा है । अतः मन खराब नहीं है, प्रत्युत आप खुद खराब हो !
जैसे पृथ्वी, जल, तेज आदि अपने
नहीं हैं, ऐसे ही मन, बुद्धि, अहंकार भी अपने नहीं हैं । ये सब परमात्माके हैं । जो परमात्माके हैं,
उनको आपने अपना मान लिया ! राजकीय वस्तुको कोई
व्यक्ति अपनी मान ले तो दण्ड मिलता है ! इन वस्तुओंको भक्त भगवान्को
दे देता है, ज्ञानी प्रकृतिको दे देता है और योगी संसारको दे
देता है । अपना माननेसे मन अशुद्ध हो जाता है ।
पृथ्वी, जल, तेज,
वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार-इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इनका
विवेचन हमलोगोंकी दृष्टिसे किया जाता है । वास्तवमें एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं
है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) ।
श्रोता‒मालासे नामजप करना अच्छा है या रामनाम लिखना अच्छा है ?
स्वामीजी‒दोनोंमें रामनाम लिखना अच्छा है; क्योंकि उसमें नेत्र
भी लग जाते हैं, हाथ भी लग जाते हैं, मन
भी लग जाता है । उपासना वह अच्छी है, जिसमें गद्गद भाव हो जाय, मन भगवान्में तल्लीन हो जाय । चाहे जप
करो, चाहे कीर्तन करो, चाहे पाठ करो,
जिसमें मन भगवान्में ज्यादा लगे, जो प्रेमपूर्वक किया जाय, वह बढ़िया हो जायगा ।
श्रोता‒आपने रोजाना साढ़े तीन लाख
जप करनेकी बात कही थी, वह कैसे सम्भव है ? समझमें नहीं आ रहा है
!
स्वामीजी‒आपसे जितना हो सके, कर लो । खास बात यह
याद रखो कि समय खाली न जाय ।
श्रोता‒नामजपके समय व्यर्थ चिन्तन होता है, उसके लिये क्या करें ?
स्वामीजी‒बार-बार ‘हे नाथ ! हे
नाथ !’ पुकारो । एक मालामें तीन-चार बार
प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! हे कृपासिन्धो ! व्यर्थ चिन्तनसे बचाओ !’ । मन्त्रोंसे
भी प्रार्थनामें विशेष शक्ति है । आर्त होकर भगवान्को पुकारो कि ‘हे नाथ !
मैं अपनी शक्तिसे मिटा नहीं सका ! आप कृपा करो’
। भगवान्की कृपासे जो काम होता है, वह अपने पुरुषार्थसे नहीं होता । भगवान्की कृपासे बहुत सरलतासे काम हो जाता है । बड़े-बड़े असम्भव काम भी भगवान्की कृपासे सम्भव हो जाते हैं । भगवान्की कृपाका
भरोसा रखकर नामजप करो, सब ठीक हो जायगा ।
भगवान् अपने हैं । भगवान्के सिवाय कोई अपना नहीं है ।
भगवान्के एक-एक रोममें करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं‒‘रोम
रोम प्रति लाने कोटि कोटि ब्रह्मडं’ (मानस, बाल॰ २०१) । करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें
तिल-जितनी, एक धागे-जितनी
चीज भी हमारी नहीं है । पर जिनके रोम-रोममें करोड़ों ब्रह्माण्ड
हैं, वे भगवान् पूरे-के-पूरे हमारे हैं !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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