(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं कहूँ और लोग तत्परतासे भगवान्में
लग जायँ‒ऐसी विद्या
मेरेको आती नहीं ! अगर मेरेको ऐसी विद्या आये तो सबको भगवान्में
लगा दूँ ! आपलोग अगर चाहो तो सब भगवान्में लग सकते हो, इसमें कोई सन्देह नहीं है । कारण कि भगवान् हमारे हैं । भगवान्पर हमारा अधिकार
है । क्यों अधिकार है ? क्योंकि हम भगवान्के अंश हैं । जैसे
अपनी माँको सब-के-सब माँ कह सकते हैं,
ऐसे ही सब-के-सब जीव भगवान्को
अपना परमपिता कह सकते हैं । एक ही माँग हो कि ‘हे नाथ ! मैं आपको
भूलूँ नहीं’ । इसके सिवाय दूसरी माँग नहीं रहनी चाहिये । भगवान् यादमात्रसे प्रसन्न
हो जाते हैं‒‘अच्युतः स्मृतिमात्रेण’ । भगवान्के सिवाय और कोई हमारा है ही नहीं, और कोई
हमारा हुआ ही नहीं, और कोई हमारा होगा नहीं, और कोई हमारा हो सकता नहीं । प्रकृतिकी जितनी चीजें
हैं, सब मिलती हैं और बिछुड़
जाती हैं । परन्तु भगवान् पहलेसे ही मिले हुए हैं और बिछुड़ते हैं ही नहीं !
कोई कितना ही दुष्ट हो, कितना ही पापी हो,
कितना ही अन्यायी हो, कितना ही घातक हो,
कितना ही क्रर हो, कितना ही नृशंस हो, भगवान् उसको छोड़ते नहीं । सदा उसके साथ रहते हैं । ऐसा और कौन है, बताओ ? थोड़ा अवगुण हो तो उसको सब छोड़ देते हैं,
माँ-बाप छोड़ देते हैं, भाई
छोड़ देते हैं, सम्बन्धी छोड़ देते हैं, कुटुम्बी
छोड़ देते हैं, पड़ोसी छोड़ देते हैं, पर भगवान्
नहीं छोड़ते ! अतः सबके साथ रहनेमें, शक्तिमें,
महिमामें, कृपा करनेमें भगवान्के समान कोई नहीं
है ! वे प्राणिमात्रके परम सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । ऐसे प्रभुको
भी याद नहीं रखते तो किसको याद रखोगे ? ऐसे भगवान्पर विश्वास
नहीं करोगे तो किसपर विश्वास करोगे ? संसार
विश्वास करनेलायक नहीं है । जो चीज मिलती है और बिछुड़ जाती है, उसपर विश्वास कैसे हो ? इसलिये भगवान्को अपना मान लो । जैसे, मीराबाईने कहा‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ । किसी-न-किसीको अपना मानना ही
पड़ेगा, यह बित्कृल सच्ची बात है । जब
किसी-न-किसीको अपना मानना ही पड़ेगा तो जो सबसे श्रेष्ठ है, कभी
हमसे अलग नहीं होगा, उसको ही अपना मानो । आजतक हमारे कितने जन्म हुए, कैसे-कैसे शरीर मिले,
पर कोई शरीर ठहरा नहीं, कोई सम्बन्ध ठहरा नहीं,
पर भगवान्का सम्बन्ध कभी टूटा नहीं !
श्रोता‒गीतामे आया है कि जीवने
जगत्को धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५), तो यह धारण करना क्या है
और यह धारण करना कैसे
मिटे ?
स्वामीजी‒यह जगत् केवल जीवकी कल्पना
है । परमात्माकी
दृष्टिमें जगत् नहीं है और परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुषोंकी दृष्टिमें भी जगत्
नहीं है । महापुरुषोंकी दृष्टिमें सब कुछ परमात्मा ही है‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । स्वप्नमें भी जगत्का
नामोनिशान नहीं है ! जगत् है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो
सकता ही नहीं ! यह एकदम पक्की, सच्ची बात
है । केवल जीवने ही जगत्को धारण कर रखा है । भगवान् कहते हैं‒‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय’ (गीता ७ । ७) अर्थात्
मेरे सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है, केवल मैं-ही-मैं हूँ । केवल जीवने संसारकी कल्पना कर रखी है ।
संसार केवल राग-द्वेषके कारण है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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