(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्की तरफ चलनेवालोंकी तीन धारणाएँ होती हैं । पहली
बात, सब कुछ भगवान्का ही
है । सबके मालिक भगवान् हैं । सब भाई-बहन कृपा करके यह धारण कर
लो कि सब कुछ केवल भगवान्का है, अन्य किसीका नहीं है । दूसरी
बात, यह सब केवल भगवान् ही हैं । तीसरी बात इससे विलक्षण है,
उसका वर्णन नहीं कर सकते ! इतना कह सकते है कि
सिवाय परमात्माके कोई चीज कभी पैदा हुई ही नहीं, होगी ही नहीं,
हो सकती ही नहीं । वह कैसे है, उसका वाणीसे वर्णन
नहीं कर सकते । तीसरी बात होनेपर पूर्णता हो जाती है ।
जैसे भूखा अन्न चाहता हो, प्यासा
जल चाहता हो, ऐसा तो मैं नहीं कह सकता, पर मेरी चाहना जरूर है कि इस बातको आप मान लें कि सब कुछ भगवान्का है । अगर आप भगवान्की प्राप्ति चाहते हो
तो सबसे पहले यह बात धारण करनी चाहिये कि मेरी चीज कोई नहीं है । ‘मैं’ भी मेरा नहीं है, प्रत्युत भगवान्का है ! यह पहली बात है । इसीसे श्रीगणेश होना चाहिये । यह शरीर, मन, वाणी, इन्द्रियाँ, प्राण आदि सब भगवान्के ही हैं‒यह आरम्भमें ही होना चाहिये
।
मन-बुद्धि हमारे नहीं हैं,
इन्द्रियाँ हमारी नहीं हैं, प्राण हमारे नहीं हैं,
जीवन हमारा नहीं हैं, स्थूलशरीर हमारा नहीं है,
सूक्ष्मशरीर हमारा नहीं है, कारणशरीर हमारा नहीं है‒यह बात होते
ही कामवृत्ति नष्ट हो जायगी अर्थात् रुपयोंमें और स्त्रीमें आकर्षण मिट जायगा ! ये दो ही साधकके लिये
महान् बाधक हैं‒
माधोजी से मिलना कैसे होय ।
सबल बैरी बसै घट भीतर, कनक कामिनी
दोय ॥
पहले ‘मेरा कुछ नहीं है’‒इस बातको पक्का करो
। यह बात ठीक जँच जायगी तो ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒यह बात बड़ी
सुगम हो जायगी । ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒यह होनेपर फिर ‘मैं
कुछ नहीं’‒यह सुगमतासे हो जायगा । ‘मैं कुछ नहीं’‒यह बात होनेपर फिर ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’‒यह बहुत सुगम
हो जायगा ।
ये बातें मान लो तो मैं आपका ऋणी हूँ
! आपका दास
हूँ ! आपका गुलाम हूँ ! आप कृपा करके इन
बातोंको मान लो ।
आप दुःख तो नहीं चाहते, पर उसके कारणकी खोज नहीं करते । अगर दुःखके
कारणका निवारण कर दिया जाय तो दुःख नहीं होगा । दुःखका कारण
है‒बेईमानी । जो अपनी चीज नहीं
है, उसको अपनी मान लेते हैं‒यह बेईमानी
है । इस बेईमानीसे दुःख होता है । जो चीज अपनी नहीं है,
वह अपने पास ठहरेगी नहीं‒यह नियम है । हमें तो
सुननेमें और कहनेमें यह बात बहुत बढ़िया मालूम देती है कि जो
चीज मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह हमारी नहीं होती । प्रकृतिकी सम्पूर्ण चीजें
मिलती हैं और बिछुड़ जाती हैं, पर परमात्मा मिले हुए ही रहते हैं,
बिछुड़ते हैं ही नहीं । वे परमात्मा हमारे हैं । यह बात खास है !
मिलने और बिछुड़नेवाली चीजको आप बेशक अपनी मान लो, पर वह आपके पास नहीं रहेगी, नहीं रहेगी, नहीं रहेगी ! फिर उसका दुःख क्यों करो ?
अंतहुँ तोहि तजैंगे पामर तू न तजै अबही ते ॥
मन पछितैहै अवसर बीते ।
(विनयपत्रिका १९८ । ३)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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