भगवान् और उनके भक्त‒दोनों ही बिना हेतु सबका हित करनेवाले हैं‒
हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
(मानस,
उत्तर॰ ४७/३)
इन दोनोंके साथ किसी भी तरहसे सम्बन्ध हो जाय तो लाभ-ही-लाभ
होता है । ये सबपर कृपा करते हैं । लोग कहते हैं कि
भगवान्ने दुःख भेज दिया ! पर भगवान्के खजानेमें दुःख है ही नहीं, फिर वे कहाँसे
दुःख लाकर आपको देंगे ? भगवान् और सन्त कृपा-ही-कृपा करते हैं, इसलिये इनका संग
छोड़ना नहीं चाहिये ।
मनुष्यजन्ममें किये गये पाप चौरासी लाख योनियाँ भोगनेपर भी
सर्वथा नष्ट नहीं होते, बाकी रह जाते हैं । फिर भी भगवान् कृपा करके मनुष्यशरीर
दे देते हैं, अपने उद्धारका मौका दे देते हैं । परन्तु मनुष्य मिले हुएको अपना मान
लेता है । मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपना माननेसे वह
वस्तु अशुद्ध हो जाती है । इसलिये शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता, प्रत्युत अपना न माननेसे शुद्ध
होता है । अतः सब कुछ भगवान्के अर्पण कर दो । मन, बुद्धि,
इन्द्रियाँ, शरीर आदिको भगवान्का मान लो तो सब शुद्ध निर्मल हो जायँगे । जहाँ
अपना माना, वहीं अशुद्ध हो जायँगे और अभिमान आ जायगा ।
एक समय बाँकुड़े जिलेमें अकाल पड़ा । सेठजी श्रीजयदयालजी
गोयन्दकाने नियम रख दिया कि कोई भी आदमी आकर दो घण्टे कीर्तन करे और चावल ले जाय ।
कारण कि अगर उनको पैसा देंगे तो उससे वे अशुद्ध वस्तु खरीदेंगे । इसलिये पैसा न
देकर चावल देते थे । इस तरह सौ-सवा सौ जगह ऐसे केन्द्र बना दिये, जहाँ लोग जाकर
कीर्तन करते थे और चावल ले जाते थे । एक दिन सेठजी वहाँ गये । रात्रिके समय बंगाली
लोग इकठ्ठे हुए । उन्होंने सेठजीसे कहा कि महाराज ! आपने हमारेको जिला दिया, नहीं
तो बिना अन्नके लोग भूखों मर जाते ! आपने बड़ी कृपा की । सेठजीने
बदलेमें बहुत बढ़िया बात कही कि आपलोग झूठी प्रशंसा करते हो । हमने मारवाड़से यहाँ
आकर जितने रुपये कमाये, वे सब-के-सब लग जायँ, तबतक तो आपकी चीज आपको दी है, हमारी
चीज दी ही नहीं । हम मारवाड़से लाकर यहाँ दे, तब आप ऐसा कह सकते हो । हमने तो
यहाँसे कमाया हुआ धन भी पूरा दिया नहीं है । सेठजीने केवल सभ्यताकी दृष्टिसे यह
बात नहीं कही, प्रत्युत हृदयसे यह बात कही । सेठजीके छोटे भाई
हरिकृष्णदासजीसे पूछा गया कि आपने सबको चावल देनेका इतना काम शुरू किया है, इसमें
कहाँतक पैसा लगानेका विचार किया है ? उन्होंने बड़ी
विचित्र बात कही कि जबतक माँगनेवालोंकी जो दशा है‒वैसी दशा हमारी न हो जाय, तबतक !
कोई धनी आदमी क्या ऐसा कह सकता है ? उनके मनमें यह अभिमान ही नहीं है कि हम
इतना उपकार करते हैं ।
हमलोग विचार ही नहीं करते कि भगवान्की हमपर कितनी विलक्षण कृपा है ! हम क्या थे, क्या हो
गये ! भगवान्ने कृपा करके क्या बना दिया‒इस तरफ देखते ही नहीं, सोचते ही
नहीं, समझते ही नहीं । अपने-अपने जीवनको देखें तो मालूम होता है कि हम कैसे थे और
भगवान्ने कैसा बना दिया !
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