।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७६ शुक्रवार
       शीघ्र भगवत्प्राप्ति कैसे हो ?


भगवान्‌के समान कोई भी नहीं है । अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं‒

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो-
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
(गीता ११/४३)

‘हे अनुपम प्रभाववाले प्रभो ! तीनों लोकोंमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है ।’

ऐसे सर्वोपरि भगवान्‌को प्राप्त करनेके लिये हमारे भीतर उत्कट अभिलाषा होनी चाहिये । वे कितने मधुर हैं । जब वे हाथोंमें वंशी लेकर त्रिभंगीरूपमें खड़े होते हैं तो कितने प्यारे लगते हैं । उनमें कितना आकर्षण है ! कितनी प्रियता है ! साधक यदि थोडा भी उनका ध्यान करे तो विह्वल हो जाय । उसकी वृत्ति संसारकी तरफ जा ही न सके ।

‘नारायण’ बिना मोल बिकी हों याकी नैक हसन में ।
मोहन      बसि      गयो        मेरे      मन      में ॥

वे प्रभु यदि थोड़ा-सा भी मुस्करा दें तो आपका सब कुछ समाप्त हो जायेगा; शेष कुछ भी नहीं बचेगा । आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा । प्रेम, ज्ञान, मुक्ति आदिका उसके सम्मुख कोई मूल्य नहीं । सन्तोंने कहा है‒

चाहै तू योग करि भृकुटी-मध्य ध्यान धरि,
चाहै नाम रूप मिथ्या जानिकै निहारि लै ।
निर्गुन, निर्भय, निराकार ज्योति व्याप रही,
ऐसो  तत्त्वज्ञान  निज  मन  में तू धारि लै ॥
‘नारायन’ अपने कौ  आप  ही  बखान  करि,
मोतें, वह भिन्न नहीं, या विधि पुकारी लै ।
जौलौं तोहि नंद कौ कुमार नाहिं दृष्टि पर्‌यो,
तौलौं तू भलै ही बैठि ब्रह्म को विचारि लै ॥

उस नन्दकुमारमें इतना आकर्षण है कि एक बार उसके दृष्टिगोचर होनेपर फिर ब्रह्म-विचार करनेकी शक्ति ही नहीं रहती । ऐसे प्रभुके रहते हुए हम नाशवान्‌ एवं दुःख देनेवाले सांसारिक पदार्थोंमें फँसे हुए हैं और फँस ही नहीं रहे हैं उनकी माँग कर रहे हैं । मान-बड़ाई, आराम, निरोगता, सुख-सुविधा, धन-सम्पत्ति आदि अनेक प्रकारके भोग्य पदार्थोंको चाहते हैं‒यह बड़ी भारी बाधा है ।


यदि भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत न भी हो तो आप घबरायें नहीं । भगवान्‌ कहते हैं‒‘व्यवसायात्मिकाबुद्धिरेकेह’ (गीता २ । ४१) ‘निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है’ । अतएव आप यही दृढ़ निश्चय कर लें कि हम तो भगवान्‌की तरफ ही चलेंगे । यदि केवल भगवान्‌की तरफ चलनेकी इस अभिलाषाको ही विचारपूर्वक जाग्रत रखा जाय तो यह अभिलाषा अपने-आप उत्कट हो जायगी । इसका कारण यह है कि प्रभुकी अभिलाषा सही है और संसारकी अभिलाषा गलत है । हम भी (स्वरूपतः) अविनाशी है । परमात्मा भी अविनाशी है और परमात्माकी अभिलाषा भी अविनाशी है । परन्तु संसार और संसारकी अभिलाषा‒दोनों ही नाशवान्‌ हैं ।  परमात्मविषयक अभिलाषा यदि थोड़ी-सी भी जाग्रत हो जाय तो वह बड़ा भारी काम करती है ।