।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७७ मंगलवार
गीतामें भक्ति और उसके अधिकारी


यहाँ प्रश्न होता है कि भगवान्‌ तो प्रत्यक्ष नहीं; फिर उनकी आज्ञाका पता कैसे लगे ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवदाज्ञाका पता लगानेका चार उपाय हैं । एक तो सत्-शास्त्र‒वेद, पुराण, ऋषिप्रणित ग्रन्थ । इनमें जिनके लिये जो कर्तव्य बताया गया है, वही करना चाहिये । ऋषि-मुनियोंने सत्-शास्त्र भगवान्‌का आशय समझकर ही लिखे हैं । इसलिए भगवान्‌ भी कहते हैं‒

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा  शास्त्रविधानोक्तं  कर्म  कर्तुमिहार्हसि ॥
                                                     (गीता १६/२४)

‘इसलिए तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है, यों जानकर तू शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्मको ही करनेयोग्य है ।’

और भगवद्गीता-जैसे ग्रन्थ तो, साक्षात् भगवान्‌के ही श्रीमुखसे निकले हुए हैं, भगवदाज्ञा हैं ही । इसलिये ऐसे ग्रन्थोंके अनुसार अपना जीवन बना लेना ही भगवदाज्ञाका पालन करना है ।

दूसरा उपाय‒भगवत्प्राप्त महापुरुष जो कहते हैं, उसे भगवदाज्ञा मानकर करना; क्योंकि जिस अन्तःकरणमें राग-द्वेष, स्वार्थ, ममता, अहंकार और पक्षपात नहीं, उस अन्तःकरणसे जो कुछ निकलेगा, वह भगवदाज्ञा ही होगी । भगवान्‌ सब जगह परिपूर्ण हैं, पर जहाँ अन्तःकरण विशेष शुद्ध है, वहीं वे प्रकट होते हैं । इसलिये महात्माओंके वचन सम्पूर्ण जगत्‌के हितके लिये होते हैं ।

महात्मा जैसा आचरण करते हैं वह भी साधकके लिये भगवदाज्ञा माननेयोग्य है । भगवान्‌ स्वयं कहते हैं‒

यद् यदाचरति श्रेष्ठस्तत् देवेतरो जनः ।
स यत प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
                                       (गीता ३/२१)

अर्थात् ‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही करते हैं, वह पुरुष जो कुछ आदर्श स्थापित करता है, लोग भी उसके अनुसार बर्तते हैं ।’

तीसरा उपाय है‒पक्षपातरहित अपने अन्तःकरणमें जो वास्तविक सिद्धान्तके अनुसार रागद्वेषरहित बात स्फुरित होती है, उसे भी भगवदाज्ञा मानकर काममें लाना, क्योंकि अन्तर्यामी परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं ।

            सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
        मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
            वेदैश्च    सर्वैरहमेव    वेद्यो-
         वेदान्तकृद्वेदविदेव    चाहम् ॥
                                         (गीता १५/१५)

अर्थात् ‘मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदोंद्वारा मैं ही जाननेके योग्य हूँ तथा वेदान्तका कर्ता और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ ।’

चौथा उपाय है‒जिन कामोंके करनेसे हमारा और लोगोंका अभी और परिणाममें भी परम हित होता दीखता हो, उन्हें भगवदाज्ञा मानकर करना‒उसमें भी हमारी अपेक्षा दूसरोंका हित तथा वर्तमानकी अपेक्षा भावीका हित मुख्य है । भगवान्‌ कैसी आज्ञा देंगे, यह उनके स्वभावसे ही समझना चाहिये । जो भगवान्‌ प्राणिमात्रके परम सुहृद्‌ हैं, हेतुरहित दयालु हैं, सबके परम पिता हैं, उन परमात्माका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करना ही है । अतः वे आज्ञा भी अपने स्वभावके अनुकूल ही देंगे ।