Listen अस्मच्छब्देन
गीतायां श्रीकृष्णो वर्ण्यते स्वयम् । तच्छ्ब्देनापि तस्यैव वर्णनं वर्तते विभोः ॥ गीतामें
यह अलौकिकता है कि भगवान्ने एक ही तत्त्वका वर्णन कई रीतियोंसे किया है । जैसे,
भगवान्ने ‘तत्’ पदसे भी अपना वर्णन किया है और
‘अस्मत्’ पदसे भी अपना वर्णन किया है । कारण कि साधकोंकी रुचि, विश्वास, योग्यता आदि अलग-अलग होते हैं; अतः किसीकी रुचि ‘तत्’-पदवाची परमात्माकी प्राप्तिकी
होती है और किसीकी रुचि ‘अस्मत्’-पदवाची परमात्माकी प्राप्तिकी होती है । ‘जिससे अनादिकालसे यह सृष्टि फैली हुई है, उसके शरण हो
जाना चाहिये’ ‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी’ (१५ । ४); ‘जिस परमात्मासे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे
यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंसे
पूजन करना चाहिये’ ‘यतः प्रवृत्तिः......स्वकर्मणा
तमभ्यर्च्य’ (१८ । ४६)‒ऐसा कहकर
‘तत्’ पदसे और मैं संसारका मूल कारण हूँ और मेरेसे ही सारा संसार
चेष्टा कर रहा है, ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते’ ( १० । ८)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्ने अपनेसे ही सम्पूर्ण
संसारकी उत्पत्ति बतायी है तथा अपनेको ही संसारमें व्याप्त बताया है । ‘तू अनन्यभावसे उस परमात्माकी शरणमें चला जा’ ‘तमेव शरणं गच्छ’ (१८ । ६२)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और ‘तू अनन्यभावसे मेरी शरणमें आ जा’ ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८ । ६६)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्ने अपने शरण होनेकी आज्ञा दी है । ‘जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है,
वह परमात्मा अनन्यभक्तिसे ही प्राप्त हो सकता है’ ‘पुरुषः स परः......सर्वमिदं ततम्’ (८ । २२)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और ‘अव्यक्तमूर्ति’ मेरेसे ही यह
सम्पूर्ण संसार व्याप्त है और सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं’ ‘मया ततमिदं....मत्स्थानि सर्वभूतानि’ (९ । ४)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्ने अपनेमें
सम्पूर्ण प्राणियोंको स्थित एवं अपनेको ही सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त बताया है । ‘जो ज्ञेय-तत्त्व है, उसका मैं वर्णन करूँगा, जिसको जाननेसे अमरताकी प्राप्ति हो जाती है’ ‘ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते’
(१३ । १२)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और ‘सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य मैं ही हूँ’ ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’ (१५ । १५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्ने अपनेको
ज्ञेय-तत्त्वके रूपमें जाननेके लिये कहा है । ‘ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित है’ ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’
(१८ । ६१)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और ‘मैं ही सबके हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित हूँ’ ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (१५ । १५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’ पदसे भगवान्ने अपनेको
सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित बताया है । ‘जो मनुष्य अन्तकालमें सर्वज्ञ, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे युक्त सगुण-निराकार परमात्माका चिन्तन करते हुए शरीर
छोड़ता है, वह उस परम दिव्य पुरुषको प्राप्त होता है’ ‘कविं पुराणं......पुरुषमुपैति दिव्यम्’ (८ । ९-१०)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ पदसे और ‘जो मनुष्य
अन्तकालमें मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मेरेको ही
प्राप्त होता है’ ‘अन्तकाले च मामेव......मद्भावं याति’ (८ । ५)‒ऐसा कहकर ‘अस्मत्’
पदसे भगवान्ने अन्तसमयमें अपना स्मरण करनेवालेको अपनी प्राप्ति होनी बतायी है ।
तात्पर्य
है कि गीतामें ‘तत्’ और ‘अस्मत्’ पदसे एक ही परमात्माका
वर्णन हुआ है ।‘जिसको प्राप्त होनेपर जीव-लौटकर संसारमें नहीं
आते, वही मेरा परमधाम है’ ‘यं प्राप्य
न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ (८ । २१), ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’
(१५ । ६)‒ऐसा कहकर ‘तत्’ और ‘अस्मत्’-पदवाची
परमात्माकी एकता बतायी गयी है । नारायण
! नारायण ! नारायण
! नारायण
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