Listen अष्टादशाद् ये विषयास्तु पूर्वमुक्ताश्च कृष्णेन किरीटिने वै । अष्टादशे ते च विधान्तरेण व्यासेन सर्वे हि समासतश्च ॥ गीताका
अठाहरवाँ अध्याय ही पूरी गीताका सार है । इसमें भगवान्द्वारा पहले कहे हुए विषयोंका
उपसंहार किया गया है, जिसमें तीन बातें विशेषतासे
मालूम देती हैं‒(१) पहले अध्यायोंमें जो विषय संक्षेपसे कहा गया है, उसका यहाँ विस्तारसे उपसंहार किया गया है; (२) पहले अध्यायोंमें
जो विषय विस्तारसे कहा गया है, उसका यहाँ संक्षेपसे उपसंहार किया
गया है; और (३) पहले अध्यायोंमें कहे हुए विषयोंको ही यहाँ प्रकारान्तरसे
अर्थात् कुछ दूसरे ही प्रकारसे कहा गया है । भगवान्के
उपदेशमें मुख्यतासे दो निष्ठाओंका ही वर्णन हुआ है, जिनका भगवान्ने ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु’ (२ । ३९)
पदोंमें संकेतरूपसे और ‘लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा.....ज्ञानयोगेन
सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्’ (३ । ३) पदोंमें स्पष्टरूपसे वर्णन किया है
। उन्हीं दो निष्ठाओंको तत्त्वसे जाननेके लिये अर्जुनने अठारहवें अध्यायके आरम्भमें
प्रश्न किया । अतः उन्हीं दो निष्ठाओंमें आये हुए विषयोंका इस अठारहवें अध्यायमें
संक्षेपसे, विस्तारसे अथवा प्रकारान्तरसे उपसंहार किया गया है
। जिस
भगवद्भक्तिका सातवेंसे बारहवें अध्यायतक विशेषतासे वर्णन हुआ है,
वह भगवान्के अपने हृदयकी बात है और दोनों निष्ठाओंसे विलक्षण है । वह
सांख्यनिष्ठा या योगनिष्ठा नहीं है, प्रत्युत भगवन्निष्ठा है,
जिसमें केवल भगवत्परायणता है । इसी भगवन्निष्ठाके वर्णनमें भगवान्ने
अपने उपदेशका उपसंहार किया है । दूसरे
अध्यायके उनतालीसवें श्लोकसे लेकर अध्यायकी समाप्तितक कर्मयोगका वर्णन हुआ है । फिर
तीसरे अध्यायमें भी प्रधानतासे उसीका वर्णन हुआ है । दूसरे अध्यायके इकसठवें श्लोकमें
‘मत्परः’ पद भगवान्की
परायणताके लिये आया है, उसीको तीसरे अध्यायके
तीसवें श्लोकमें थोड़ा विस्तारसे कह दिया है । इस प्रकार कर्मयोगमें उपासनाका भी थोड़ा
साथ हुआ है । चौथे अध्यायमें भगवान्ने कर्मयोगकी परम्परा बताते हुए अपने जन्मों और
कर्मोंका तत्त्व बताया और अपने कर्मोंको आदर्श बताते हुए कर्मयोगका वर्णन किया । फिर
पाँचवें अध्यायमें उसी कर्मयोग और सांख्ययोगकी बारी-बारीसे (एक बार कर्मयोगकी और एक
बार सांख्ययोगकी) चर्चा की और अन्तमें भक्तिका विवेचन करते हुए अध्यायकी समाप्ति की
। इस प्रकार दूसरे अध्यायसे पाँचवें अध्यायकी समाप्तितक कर्मयोगका वर्णन हुआ है,
उसीको अठारहवें अध्यायके चौथेसे बारहवें श्लोकतक प्रकारान्तरसे कहा
गया है । पाँचवें
अध्यायके तेरहवेंसे छब्बीसवें श्लोकतक और तेरहवें अध्यायके उन्नीसवेंसे चौंतीसवें
श्लोकतक विचारप्रधान सांख्ययोगका वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके तेरहवेंसे अठारहवें श्लोकतक प्रकारान्तरसे वर्णन
किया गया है । तीसरे
अध्यायके आठवें श्लोकमें जिस नियत कर्मकी बात आयी थी, उसीका अठारहवें अध्यायके बयालीसवेंसे
अड़तालीसवें श्लोकतक विस्तारसे वर्णन किया गया है । सातवें
अध्यायसे लेकर बारहवें अध्यायतक भक्तियोगका जो विस्तारसे वर्णन हुआ है,
उसीका अठारहवें अध्यायके छप्पनवेंसे छाछठवें श्लोकतक पहलेकी अपेक्षा
कुछ संक्षेपसे और कुछ प्रकारान्तरसे वर्णन हुआ है । चौथे
अध्यायके तेरहवें श्लोकमें चारों वर्णोंका जो विषय संक्षेपसे कहा गया था, उसीको अठारहवें
अध्यायके इकतालीसवेंसे चौवालीसवें श्लोकतक विस्तारसे कहा गया है । यहाँ (१८ । ४१‒४४में)
सत्रहवें अध्यायके दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें आयी स्वभावजा श्रद्धाका भी उपसंहार माना
जा सकता है ।
भगवान्ने
गीतामें सांख्ययोगका वर्णन करते हुए कहीं कहा कि प्रकृति और उसके गुणोंद्वारा ही सब
कर्म किये जाते हैं (३ । २७; १३ । २९), कहीं
कहा कि द्रष्टा गुणोंके सिवाय अन्यको कर्ता नहीं देखता (१४ । १९); और कहीं कहा कि इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरतती हैं (५ । ९) आदि ।
उसीका अठारहवें अध्यायके तेरहवेंसे अठारहवें श्लोकतक संक्षेपसे और प्रकारान्तरसे वर्णन
हुआ है । |