।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      माघ कृष्ण द्वितीया , वि.सं.-२०७९, रविवार

गीतापर विहंगम दृष्टि



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चौदहवें अध्यायके पाँचवेंसे अठारहवें श्‍लोकतक जो गुणोंका वर्णन हुआ है, उसीको अठारहवें अध्यायके बीसवेंसे चालीसवें श्‍लोकतक विस्तारसे और प्रकारान्तरसे कहा गया है ।

छठे और आठवें अध्यायमें जो ध्यानका विस्तारसे वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके इक्यावनवेंसे तिरपनवें श्‍लोकतक प्रकारान्तरसे और संक्षेपसे वर्णन हुआ है । यहाँ (१८ । ५१‒५३में) तेरहवें अध्यायके सातवेंसे ग्यारहवें श्‍लोकतक वर्णित ज्ञानयोगके बीस साधनोंका भी उपसंहार माना जा सकता है ।

सातवें अध्यायके आठवेंसे बारहवें श्‍लोकतक, नवें अध्यायके सोलहवेंसे उन्‍नीसवें श्‍लोकतक, दसवें अध्यायके बीसवेंसे अड़तीसवें श्‍लोकतक और पंद्रहवें अध्यायके बारहवेंसे पंद्रहवें श्‍लोकतक जिन विभूतियोंका भगवान्‌ने वर्णन किया है, उन्हींका अठारहवें अध्यायके अठहत्तरवें श्‍लोकमें संजयने संक्षेपसे उपसंहार किया है ।

ग्यारहवें अध्यायमें भगवान्‌के विश्‍वरूपका जो वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके सतहत्तरवें श्‍लोकमें संजयने स्मृतिरूपसे वर्णन करते हुए संक्षेपसे उपसंहार किया है ।

तीसरे अध्यायके इकतीसवें श्‍लोकमें, चौथे अध्यायके उनतालीसवें श्‍लोकमें और सत्रहवें अध्यायके तीसरे श्‍लोकमें जिस श्रद्धाका वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके इकहत्तरवें श्‍लोकमें भगवान्‌ संक्षेपसे वर्णन करते हैं ।

दूसरे अध्यायके इकतीसवेंसे अड़तीसवें श्‍लोकतक जिस क्षात्रधर्मका वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके तैंतालीसवें श्‍लोकमें संक्षेपसे वर्णन हुआ है ।

तीसरे अध्यायके तैतीसवें श्‍लोकमें जिस स्वभावकी परवशता बतायी गयी है, उसीका अठारहवें अध्यायके उनसठवें-साठवें श्‍लोकोंमें उपसंहार किया गया है ।

पहले अध्यायके इकतीसवेंसे छियालीसवें श्‍लोकतक जिस मोहकी बात आयी है, उसीका अठारहवें अध्यायके सातवें, साठवें, बहत्तरवें और तिहत्तरवें श्‍लोकमें संक्षेपसे उपसंहार हुआ है ।

दूसरे अध्यायके पचपनवेंसे बहत्तरवें श्‍लोकतक स्थितप्रज्ञके जिन लक्षणोंका वर्णन हुआ है, उन्हींका अठारहवें अध्यायके दसवें-ग्यारहवें श्‍लोकोंमें संक्षेपसे उपसंहार हुआ है ।

आठवें अध्यायमें अन्तकालके स्मरणकी जो बात आयी है, उसीका अठारहवें अध्यायके सत्तावनवें, अट्ठावनवें और पैसठवें श्‍लोकमें संक्षेपसे उपसंहार किया गया है ।

सोलहवें अध्यायके पहलेसे तीसरे श्‍लोकतक जिस दैवी सम्पत्तिके लक्षणोंका विस्तारसे वर्णन हुआ है, उन्हीं लक्षणोंका अठारहवें अध्यायके बयालीसवेंसे चौवालीसवें श्‍लोकतक प्रकारान्तरसे वर्णन हुआ है ।

सोलहवें अध्यायके सातवेंसे बीसवें श्‍लोकतक जिस आसुरी सम्पत्तिका विस्तारसे वर्णन हुआ है, उसीका अठारहवें अध्यायके सड़सठवें श्‍लोकमें गीताश्रवणके अनधिकारीका वर्णन करते हुए संक्षेपसे वर्णन हुआ है ।

चौथे अध्यायके अट्ठाईसवें श्‍लोकमें जिस स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञकी बात आयी है, उसीका अठारहवें अध्यायके सत्तरवें श्‍लोकमें ज्ञानयज्ञेन’ पदसे उपसंहार हुआ है ।

दूसरे अध्यायके ग्यारहवेंसे तीसवें श्‍लोकतक जिस शोकका निषेध किया है, उसीका अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्‍लोकमें मा शुचः’ पदसे उपसंहार हुआ है ।

इस प्रकार अठारहवाँ अध्याय गीताका सार है । इस अध्यायका ठीक मनन करनेसे गीताका सार समझमें आ जाता है ।

सब ग्रन्थोंका सार है वेद, वेदोंका सार है उपनिषद्, उपनिषदोंका सार है भगवद्‌गीता और भगवद्‌गीताका सार है सर्वगुह्यतम तत्त्व अर्थात् सगुण भगवान्‌की शरणागति, जिसका वर्णन अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्‍लोकमें हुआ है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !