।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

सत्यकी खोज



Listen



अब यह विचार करें कि भोक्ता कौन है ? भोक्ता न तो सत्‌ हो सकता है, न असत्‌ हो सकता है; क्योंकि सत्‌में भोक्तापनका अभाव है और असत्‌में भोक्तापन सम्भव ही नहीं है । जब साधक विवेकपूर्वक शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब न कर्ता रहता है, न भोक्ता रहता है, प्रत्युत एक चिन्मय सत्ता रहती है । इससे सिद्ध होता है कि वास्तवमें कोई कर्ता-भोक्ता नहीं है, केवल माना हुआ है । यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि ज्ञान होनेपर जब साधकका ‘शरीर’ से सम्बन्ध नहीं रहता, तब उसका ‘शरीरी’ से भी सम्बन्ध नहीं रहता । कारण कि शरीरके सम्बन्धसे ही चिन्मय सत्ता ‘शरीरी’ कहलाती है । शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर चिन्मय सत्ता तो रहती है, पर उसकी ‘शरीरी’ संज्ञा नहीं रहती । चिन्मय सत्तामें सम्पूर्ण शरीरी एक हो जाते हैं । उस चिन्मय सत्ताको ही ‘ब्रह्म’ कहते हैं और उसमें स्वतःसिद्ध स्थितिको ही मुक्ति कहते हैं । मुक्तिमें जीवका ब्रह्मसे साधर्म्य हो जाता है अर्थात् जैसे ब्रह्म सच्‍चिदानन्दस्वरूप है, ऐसे ही जीव भी सच्‍चिदानन्दस्वरूप हो जाता है‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २) । साधर्म्य होनेपर जीव जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ और वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर, अमर, तथा स्वाधीन हो जाता है । इसको योगकी प्राप्‍ति भी कहते हैं‘तदा योगमवाप्स्यसि’ (गीता २ । ५३) ।

जहाँ योग है, वहाँ भोग नहीं होता और जहाँ भोग है, वहाँ योग नहीं होतायह नियम है । परन्तु एक अवस्था ऐसी भी होती है, जिसमें साधकको योगका, ज्ञानका अथवा प्रेमका अभिमान हो जाता है और वह मान लेता है कि मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ अथवा मैं प्रेमी हूँ । कारण कि अनादिकालसे जीवमें यह आदत पड़ी हुई है कि वह जिसके साथ सम्बन्ध करता है, उसका अभिमान कर लेता है; जैसेधन मिलनेसे ‘मैं धनी हूँ’ आदि । मैं योगी हूँयह वास्तवमें योगका भोग है; क्योंकि इसमें योगका संग है, योगके साथ अहम्‌ मिला हुआ है । मैं ज्ञानी हूँयह वास्तवमें ज्ञानका भोग है; क्योंकि इसमें ज्ञानका संग है, ज्ञानके साथ अहम्‌ मिला हुआ है । मैं प्रेमी हूँयह वास्तवमें प्रेमका भोग है; क्योंकि इसमें प्रेमका संग है, प्रेमके साथ अहम्‌ मिला हुआ है । भोग न रहनेपर योगी, ज्ञानी और प्रेमी नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व सर्वथा मिट जाता है । कारण कि योग, ज्ञान या प्रेम मिलनेसे मनुष्य उनके साथ एक हो जाता है अर्थात् वह योगस्वरूप, ज्ञानस्वरूप या प्रेमस्वरूप हो जाता है, इसलिये उनका अभिमान नहीं होता । जबतक व्यक्तित्व रहता है, तबतक पतनकी सम्भावना रहती है । इसलिये जो योगका अभिमानी है, वह कभी भोगमें भी फँस सकता है; जो ज्ञानका अभिमानी है, वह कभी अज्ञानमें भी फँस सकता है; जो मुक्तिका अभिमानी है, वह कभी बन्धनमें भी फँस सकता है[*]; जो प्रेमका अभिमानी है, वह कभी रागमें भी फँस सकता है ।

जब योग, ज्ञान और प्रेमका अभिमान (भोग) नहीं रहता, तब साधक मुक्त हो जाता है । मुक्त होनेपर भी साधकने जिस मत (प्रणाली)-को मुख्यता दी है, उसका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है, जिसको अभिमानशून्य अहम्‌ कहते हैं । जैसे भुने हुए चने खेतीके काम तो नहीं आते, पर खानेके काम आते हैं, ऐसे ही वह अभिमानशून्य अहम्‌ जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर (अपने मतका संस्कार रहनेसे) अन्य दार्शनिकोंसे मतभेद करनेवाला होता है । तात्पर्य है कि उस सूक्ष्म अहम्‌के कारण मुक्त पुरुषको अपने मतमें सन्तोष हो जाता है । जबतक अपने मतमें सन्तोष है, अपनी मान्यताका आदर है, तबतक दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होती । साधन तो अलग-अलग होते हैं, पर साधन-तत्त्व (जाति) एक होता है अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी साधन मिलकर साधन-तत्त्व होता है । मुक्त पुरुषका मत साधन-तत्त्व होता है । परन्तु वह साधन-तत्त्वको ही साध्य मानकर उसमें सन्तोष कर लेता है ।



[*] येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।

    आरुह्य  कृच्छ्रेण  परं  पदं ततः पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥

(श्रीमद्भा १० । २ । ३२)

‘हे कमलनयन ! जो लोग आपके चरणोंकी शरण नहीं लेते और आपकी भक्तिसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको मुक्त तो मानते हैं, पर वास्तवमें वे बद्ध ही हैं । वे यदि कष्टपूर्वक साधन करके ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं ।’